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तीर्थंकर-जीवन
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कर, ७. जल में डूब कर, ८. अग्नि में जल कर, ९. विष खाकर, १०. शस्त्र प्रयोग से, ११. फाँसी लगा कर और १२. गीध पक्षी अथवा अन्य मांसभक्षी पक्षियों से नुचवा कर मरना ।।
स्कन्दक ! इन बारह प्रकार के मरणों में से किसी भी मृत्यु से मरता हआ जीव नरक और तिर्यग्गति का अधिकारी और चतुर्गत्यात्मक संसार भ्रमण को बढ़ाता है । मरण से बढ़ना इसी को कहते हैं ।
पण्डित-मरण के दो भेद हैं-१. पादपोपगमन और २. भक्तप्रत्याख्यान ।
आयुष्य का अन्त निकट जान कर खड़े-खड़े, बैठे-बैठे अथवा सोतेसोते जिस आसन में अनशन स्वीकार किया जाय उसी आसन में अन्त तक रहकर शुभ ध्यान पूर्वक प्राण त्याग करना पादपोपगमन मरण है।
अनशन करके भी दूसरी चेष्टाओंका त्याग न कर अपनी आवश्यक क्रियाओं को करते हुए समाधिपूर्वक प्राणत्याग करना भक्तप्रत्याख्यान मरण है।
स्कन्दक ! इन पंडित-मरणों से मरते हुए ज्ञानी मनुष्य नरकतिर्यग्गति के भ्रमण कम कर देते हैं और इस अनादि-अनन्त दीर्घसंसार को कम करके मुक्ति के निकट जा पहुँचते हैं ।
इस स्पष्टीकरण से प्रतिबद्ध हो स्कन्दक ने भगवान् महावीर को वन्दन कर निर्ग्रन्थ प्रवचन का विशेष उपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की । भगवान् ने उसी समय स्कन्दक तथा अन्य उपस्थित महानुभावों के समक्ष निर्ग्रन्थधर्म का उपदेश किया जिसे सुन कर स्कन्दक आनन्दित होकर बोले'भगवन् मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को चाहता हूँ, मैं इस पर पूर्ण श्रद्धा करता हूँ, आपका कथन नि:संदेह सत्य है मैं आपके प्रवचन को स्वीकार करता हूँ ।' यह कहकर स्कन्दक ईशानकोण की तरफ कुछ दूर गये और त्रिदण्ड, कमण्डलु, पादुका आदि परिव्राजकोपकरणों को एकान्त में छोड़ फिर भगवान के पास आये और वन्दन कर बोले-'भगवन् ! यह संसार चारों ओर से आग में जलते हुए घर के समान है । जलते घर में से जो भी सारभूत पदार्थ
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