SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ पैदा होता है और मस्तक झुक जाता है । पन्यास कल्याणविजयजी म. को जब भी आचार्य पद देने के लिए आग्रह किया गया, वे हर बार 'मैं जिस पद पर हूँ वह बराबर है' यह कहकर आचार्य पद लेना टालते रहे । पंन्यास कल्याणविजयजी गणि में विशिष्ट प्रकार की खोजबीन की शक्ति इतनी आत्मसात् थी की विहार करते हुए किस गाँव से गुज़र रहे हो तो गाँव की सीमा में स्थापित वीरप्रतिमा- खुदे हुए पथ्थर के इतिहास की, उसके पीछे छुपे हुए रहस्य की खोज में वे लग जाते, फिर वह किसी भी व्यक्ति या मान्यता का भी क्यों न हो ? छोटे से गाँव में भी यदि वे जाते तो गाँव का मंदिर, उपाश्रय और वहाँ पड़े रहे पुराने पन्ने, पुरानी किताबें, सभी का वे बारीकाई से निरीक्षण करते और लोग जिसे फालतू कचरा समझकर फेंकने का सोचते उस में से कल्याणविजयजी नई इतिहास परम्परा खोज निकालते या फिर तत्त्वज्ञान का नया नवनीत प्राप्त करते । पन्यास श्री कल्याणविजयजी गणि शेर की तरह नीडर प्रकृति वाले थे, किसी के भी शेह- शरम, सिफ़ारिश, आडंबर या प्रभाव तले कभी भी आते नहीं थे । और उन्हें जो भी सच लगता वह खरीखरी भाषा में कह देते थे, इसके लिए उन्हें कुछ सहना भी पड़ता, तो इसके लिए तैयार रहते थे । यदि उनकी मान्यता या उनके द्वारा प्रचारित बात- सिद्धांत बराबर नहीं है, नुकसानकर्ता है, ऐसा यदि उन्हें मालूम होता तो वे अपनी कीर्ति, यश या महत्ता को महत्त्व दिये बगैर सत्य का स्वीकार कर लेते और साफ साफ कहते कि 'मैनें कहा है, सोचा है, वह सही है पर अब यह करने जैसा नहीं है ।' इस तरह सत्य को अपनाने में वे कभी झिझकते नहीं थे । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy