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थे । अधिकांश ग्रंथों में उनका खुद का निजी चिंतन और स्वयंस्फूर्त सर्जन परिलक्षित होता है ।
हमारे वहाँ पुन्यविजयजी म. साहेब को प्राचीन ग्रंथों के संशोधन के विषय में आधिकारिक स्थान दिया गया है, लेकिन मैंने हठीभाई की बाड़ी अहमदाबाद में उन्हें पन्यास कल्याणविजयजी से घंटों तक संशोधन के विषय में परामर्श करते देखा है एवं प्रेरणा लेते पाया है। आगम वगैरह ग्रंथों का विशिष्ट ज्ञान इनके पास था । इसका सबूत है 'प्रबंधपारिजात' ग्रंथ, जिसमें निशीथ-महानिशीथ जैसे छेद ग्रंथों का उन्होंने काफ़ी अन्वेषण किया है । सेंकडों वर्षों से जैन संघ और उसके विद्वान् मुनिराजों को भी जिन वातों की जानकारी नहीं थी वैसी बातें उन्होंने 'पट्टावली पराग' और 'निबंध निचय ग्रंथ' के द्वारा बातें प्रस्तुत की है। वैसे ही 'कल्याणकलिका' भाग १-२ ग्रंथ में उन्होंने ज्योतिष और प्राचीन शिल्प के अनेक ग्रंथों का दोहन प्रस्तुत किया है । 'मानवभोज्य मीमांसा' 'पंडित माघ' वगैरह अनेक ग्रंथों के द्वारा विशिष्ट विद्वानों का ध्यान खींचा है !
श्रमण भगवान् महावीर और वीरनिर्वाणसंवत् और जैन कालगणना इन ग्रंथों के निर्माण में तो भारतभर के विद्वान् इतिहासज्ञों को झुका दे वैसा उनका परिश्रम भरा हुआ है ।।
आगमग्रंथ, शिलालेख और विविधसाहित्य के निरीक्षण, मनन और चिंतन के द्वारा उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के क्रमबद्ध चातुर्मास एवं उन्हें हुए उपसर्गों का जो आकलन प्रस्तुत किया है वह अपूर्व है ।
वीरनिर्वाण और जैनकालगणना तो इतना आधारभूत ग्रंथ माना गया है कि उसका आधार लेकर अनेक इतिहासविदों ने अपना संशोधन किया है।
उनके लिखे हुए करीबन तीस ग्रंथों के पार्श्व में प्राचीन-अर्वाचीन विविध ग्रंथों का पठन, निरीक्षण, मनन, और संकलन सविशेष दिखाई देता है । उनके हाथों से मुद्रित हुए प्रत्येक ग्रंथ की यदि विस्तृत समालोचना की जाय तो उनके विशाल ज्ञान, अनुभव और सूक्ष्म निरीक्षण के प्रति अहोभाव
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