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श्रमण भगवान् महावीर २२. बाईसवाँ वर्ष (वि० पू० ४९१-४९०)
वर्षाकाल बीतने पर भगवान् ने मगध-भूमि की ओर विहार किया और क्रमश: राजगृह पधारे । यहाँ के समवसरण में भगवान् के उपदेश से राजगृह निवासी महाशतक गाथापति ने श्रमणोपासकधर्म स्वीकार किया ।
इस अवसर पर बहुत से पार्खापत्य स्थविर भगवन् महावीर के समवसरण में आये और उन्होंने कुछ दूर खड़े रहकर प्रश्न किया भगवन् ! इस असंख्येय लोक में अनन्त रात्रिदिन उत्पन्न हुए, होते हैं और होंगे या परीत्त ? तथा अनन्त रात्रिदिन व्यतीत हुए हैं, होते हैं और होंगे या परीत्त ?
महावीर-आर्यो ! इस असंख्येय लोक में अनन्त और परीत्त रात्रिदिन उत्पन्न हुए, होते हैं और होंगे तथा अनन्त और परीत्त ही व्यतीत हुए, होते हैं और होंगे ।
स्थविर-भगवन् यह कैसे ? असंख्येय लोक में अनन्त और परीत्त रात्रिदिन कैसे उत्पन्न हुए और व्यतीत हुए ?
महावीर-आर्यो ! पुरुषादानीय पार्श्वनाथ अर्हन्त ने कहा है कि लोक शाश्वत-अनादि-अनन्त है । वह परीत्त (असंख्येय प्रदेशात्मक) और परिवृत्त (अलोकाकाश से व्याप्त) है । नीचे की तरफ विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर के भाग में विशाल है। आकार में वह अधोभाग में पलंग जैसा, मध्य में वज्र जैसा और ऊपरी भाग में ऊर्ध्वमृदंग जैसा है । इस अनादि-अनन्त शाश्वत लोक में अनन्त जीवपिण्ड उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं । परीत्त जीवपिण्ड भी उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं, अतएव लोक उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है । लोक का दूसरा अंश 'अजीवकाय' प्रत्यक्ष होने से लोक प्रत्यक्ष है । लोकवर्ती 'अजीवद्रव्य' प्रत्यक्ष देखा जाता है इसीलिये इसको 'लोक' कहते हैं; लोक्यते इति लोकः ।।
। भगवान् महावीर के स्पष्टीकरण से पार्खापत्य स्थविरों के मन का समाधान हो गया और उन्हें यह भी विश्वास हो गया कि भगवान् महावीर 'सर्वज्ञ' और 'सर्वदर्शी' हैं । वे श्रमण भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर बोले—'भगवन्, हम आप के पास चातुर्यामधर्म के स्थान पर पञ्चमहाव्रतात्मक
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