SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०९ तीर्थंकर-जीवन महावीर ‘महानिर्यामक' हैं । स०-देवानुप्रिय ! तुम ऐसे चतुर, ऐसे नयवादी, ऐसे उपदेशक और ऐसे विज्ञान के ज्ञाता हो तो क्या मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के साथ विवाद कर सकते हो ? गो०-नहीं, मैं ऐसा करने में समर्थ नहीं हूँ। स०-क्यों ? मेरे धर्माचार्य के साथ विवाद करने में तुम समर्थ क्यों नहीं ? गो०-सद्दालपुत्र ! जैसे कोई युवा मल्ल पुरुष बकरे, मेंढे सुअर आदि पशु या कुकड़े, तीतर, बतक आदि पक्षी को पाँव, पूँछ, पंख जहाँ कहीं से पकड़ता है, मजबूत पकड़ता है; वैसे ही श्रमण भगवान् महावीर भी हेतु, युक्ति, प्रश्न और उत्तर में जहाँ-जहाँ मुझे पकड़ते हैं वहाँ-वहाँ निरुत्तर करके ही छोड़ते हैं । इसलिये मैं तुम्हारे धर्माचार्य के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हूँ । सद्दालपुत्र-देवानुप्रिय ! तुम मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के सद्गुणों की वास्तविक प्रशंसा करते हो इसलिये, न कि धर्म या तप समझ कर, पीठफलक आदि के लिए निमंत्रण देता हूँ । मेरी भाण्डशाला में जाओ और जो उपकरण चाहिये ले कर रहो । इस पर मंखलि गोशालक सद्दालपुत्र की भाण्डशाला में जा कर ठहरा । भाण्डशाला में रहते हुए गोशालक ने सद्दालपुत्र को बहुत समझायाबुझाया, पर अपने प्रयल में वह सफल नहीं हो सका । वह सद्दालपुत्र की ओर से सदा के लिये निराश होकर चला गया । इस घटना से उस के हृदय में जो गहरी चोट लगी वह कभी शान्त नहीं हुई । पोलासपुर से विहार कर अनेक स्थानों में प्रवचन का प्रचार करते हुए भगवान् महावीर ग्रीष्म ऋतु के अन्त में वाणिज्यग्राम पहुँचे और वर्षावास भी वहीं व्यतीत किया । १. उपासकदशा अध्ययन ७, प० ४३-५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy