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तीर्थंकर-जीवन महावीर ‘महानिर्यामक' हैं ।
स०-देवानुप्रिय ! तुम ऐसे चतुर, ऐसे नयवादी, ऐसे उपदेशक और ऐसे विज्ञान के ज्ञाता हो तो क्या मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के साथ विवाद कर सकते हो ?
गो०-नहीं, मैं ऐसा करने में समर्थ नहीं हूँ।
स०-क्यों ? मेरे धर्माचार्य के साथ विवाद करने में तुम समर्थ क्यों नहीं ?
गो०-सद्दालपुत्र ! जैसे कोई युवा मल्ल पुरुष बकरे, मेंढे सुअर आदि पशु या कुकड़े, तीतर, बतक आदि पक्षी को पाँव, पूँछ, पंख जहाँ कहीं से पकड़ता है, मजबूत पकड़ता है; वैसे ही श्रमण भगवान् महावीर भी हेतु, युक्ति, प्रश्न और उत्तर में जहाँ-जहाँ मुझे पकड़ते हैं वहाँ-वहाँ निरुत्तर करके ही छोड़ते हैं । इसलिये मैं तुम्हारे धर्माचार्य के साथ विवाद करने में समर्थ नहीं हूँ ।
सद्दालपुत्र-देवानुप्रिय ! तुम मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर के सद्गुणों की वास्तविक प्रशंसा करते हो इसलिये, न कि धर्म या तप समझ कर, पीठफलक आदि के लिए निमंत्रण देता हूँ । मेरी भाण्डशाला में जाओ और जो उपकरण चाहिये ले कर रहो ।
इस पर मंखलि गोशालक सद्दालपुत्र की भाण्डशाला में जा कर ठहरा । भाण्डशाला में रहते हुए गोशालक ने सद्दालपुत्र को बहुत समझायाबुझाया, पर अपने प्रयल में वह सफल नहीं हो सका । वह सद्दालपुत्र की
ओर से सदा के लिये निराश होकर चला गया । इस घटना से उस के हृदय में जो गहरी चोट लगी वह कभी शान्त नहीं हुई ।
पोलासपुर से विहार कर अनेक स्थानों में प्रवचन का प्रचार करते हुए भगवान् महावीर ग्रीष्म ऋतु के अन्त में वाणिज्यग्राम पहुँचे और वर्षावास भी वहीं व्यतीत किया ।
१. उपासकदशा अध्ययन ७, प० ४३-५३ ।
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