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तीर्थंकर - जीवन
क्योंकि वर्तमान काल में वे ही सर्वज्ञ और महाब्राह्मण हैं ।
बड़े तड़के सद्दालपुत्र उठा और जरूरी कामों से निवृत्त होकर अपने धर्माचार्य के पास जाने की तैयारी करने लगा । अभी वह ठीक तरह से तैयार भी नहीं हुआ था कि इतने में जनप्रवाद सुनाई देने लगा -' - 'पोलासपुर के बाहर ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर पधारे हैं ।'
महावीर का आगमन सुनते ही सद्दालपुत्र हतोत्साह हो गया । उसकी दर्शनोत्कंठा शान्त हो गई । क्षणभर के लिए किंकर्तव्यविमूढ होने के उपरान्त उसे गतरात्रि का देवादेश याद आया । उसका हृदय जागरित हुआ । वह भगवान् के पास पहुँचा और विनय पूर्वक बोला — 'भगवन् ! शय्या फलकादि प्रस्तुत हैं, स्वीकार करने का अनुग्रह कीजिये ।' श्रमण भगवान् सद्दालपुत्र का निमंत्रण स्वीकार कर उसकी भाण्डशाला में जा उपस्थित हुए ।
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भगवान् को अपनी भाण्डशाला में ठहराकर तथा पीठफलकादि प्रातिहारिक अर्पण कर सद्दालपुत्र अपने काम में लगा । भाण्डशाला में बर्तनों को इधर-उधर करता, गीलों को धूप में और सूखों को छाया में रखता हुआ वह अपने काम में लीन था, उस समय भगवान् ने सद्दालपुत्र से पूछासद्दालपुत्र ! यह बर्तन कैसे बना ?
सद्दालपुत्र—भगवन् ! यह बर्तन पहले केवल मिट्टी ही होता है । उसे जल में भिगो, लीद भूसा आदि मिलाकर पिण्ड बनाते हैं और पिण्ड को चाक पर चढ़ा कर हाँड़ी, मटकी आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाए जाते हैं ।
महावीर —— ये बर्तन पुरुषार्थ और पराक्रम से बने हैं अथवा उनके बिना ही ?
सद्दालपुत्र- ये बर्तन नियतिबल से बनते हैं, पुरुष - पराक्रम से नहीं । सब पदार्थ नियतवश हैं। जिसका जैसे होना नियत है वह वैसे ही होता है । उसमें पुरुषप्रयत्न कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता ।
महावीर -- सद्दालपुत्र ! तुम्हारे इन कच्चे तथा पक्के बर्तनों को यदि
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