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तीर्थंकर - जीवन
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श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने बहुत वर्षों तक शीलव्रत, गुणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि तपोऽनुष्ठानों से आत्मशुद्धि करते हुए अन्त में मासिक अनशन पूर्वक आयुष्य पूर्ण कर सौधर्मकल्प देवलोक में देवपद प्राप्त किया ।
आलभिया से विहार कर भगवान् कौशांबी पधारे। कौशांबी का राजा उदयन शायद तब तक नाबालिग था । राज्यव्यवस्था उसकी माता मृगावती देवी, अपने बहनोई उज्जयनीपति चण्डप्रद्योत की सहानुभूति से चला रही थी । यद्यपि मृगावती चण्डप्रद्योत से खुश नहीं थी फिर भी उसकी सैनिक शक्ति और अपने पुत्र की बाल्यावस्था का विचार कर वह उससे मेल रखती थीं ।
जब भगवान् कौशांबी पधारे तो राजा चण्डप्रद्योत भी वहीं ठहरा हुआ था । चण्डप्रद्योत अंगारवती आदि उसकी रानियाँ, उदयन तथा राजमाता मृगावती बड़ी सजधज से भगवान् के समवसरण में वन्दनार्थ गईं, नागरिकजन भी बड़ी संख्या में एकत्र हुए। भगवान् वर्धमान ने उस महती सभा में वैराग्यजनक धर्मदेशना की, जिसे सुन कर अनेक धर्मशील मनुष्यों के हृदय भगवान् के धर्ममार्ग में श्रद्धालु बने । उसी समय सभा में उपस्थित मृगावती ने कहा— 'भगवान् ! मैं प्रद्योत की आज्ञा लेकर आपके पास दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ । इसके बाद अपने पुत्र उदयन को प्रद्योत के संरक्षण में छोड़ते हुए उससे दीक्षा की आज्ञा माँगी । यद्यपि प्रद्योत की इच्छा मृगावती की स्वीकृति देने की नहीं थी पर उस महती सभा में लज्जावश वह इनकार नहीं कर सका ।
अंगारवती आदि चण्डप्रद्योत की आठ रानियों ने भी दीक्षा लेने के लिए उसी समय राजा से आज्ञा माँगी । प्रद्योत ने उन्हें भी आज्ञा प्रदान की और भगवान् महावीर ने उन सब को निर्ग्रन्थ मार्ग में प्रव्रजित कर श्रमणीसंघ में प्रविष्ट किया ।
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१. भग० शत ११, उद्दे० १२ १० ५५०-५५१ ।
२. आवश्यकटीका प० ६४-६७ ।
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