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तीर्थकर-जीवन
१०१ भी यदि उन्हें दयापालक माना जाय तब तो गृहस्थों को भी अहिंसक मानना पड़ेगा, क्योंकि वे भी अपने कार्यक्षेत्र के बाहर के जीवों की हिंसा नहीं करते । श्रमण कहलाते हुए जो वर्ष में एक भी जीव की हिंसा करते हैं, या उसका समर्थन करते हैं वे अनार्य अपना हित नहीं कर सकते और न वे केवलज्ञान ही पा सकते हैं ।।
जो धर्मसमाधि में स्थिर रहते है और मन, वचन, काय से प्राणियों की प्राण रक्षा करते हैं वे ही संसार प्रवाह को तैर कर धर्म का उपदेश करे ।
____ हस्तितापसों को निरुत्तर कर स्वप्रतिबोधित पाँच सौ चोर, वाद में जीते और प्रतिबोध पाये हुए हस्तितापसादि वादी और इतर परिवार के साथ आर्द्रक मनि आगे बढ़ रहे थे कि एक वनहाथी, जो नया ही पकड़ा हुआ था, बन्धन तोड़ कर उनकी तरफ झपटा । उसे देख कर लोगों ने बड़ा हो-हल्ला मचाया कि हाथी मुनि को मारे डालता है । पर आश्चर्य के साथ उन्होंने देखा कि विनीत शिष्य की तरह हाथी मुनि के चरणों में सिर झुका कर प्रणाम कर रहा है, और क्षणभर के बाद वह वन की ओर भाग रहा है ।
___ उक्त घटना सुनकर राजा श्रेणिक आर्द्रकुमार मुनि के पास आये और हाथी के बन्धन तोड़ने का कारण पूछा । उत्तर में मुनि ने कहा-राजन् ! मनुष्यकृत पाश तोड़ कर मत्त हाथी का वन में जाना ऐसा दुष्कर नहीं जैसा कच्चे सूत का धागा तोड़ना ।
- इसके बाद आर्द्र मुनि भगवान् महावीर के पास गये और भक्तिपूर्वक वन्दन किया । भगवान् ने उनसे प्रतिबोधित राजपुत्रों और तापसादिको प्रव्रज्या देकर उन्हीं के सपुर्द किया ।
२०. बीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४९३-४९२)
इस वर्ष भी भगवान् ने वर्षवास राजगृह में किया । वर्षाकाल पूरा होने पर भगवान् ने राजगृह से कौशांबी की तरफ विहार किया ।
१. सूत्रकृतांग श्रुतस्कन्ध २, अध्याय ६, प० ३८७-४०५ ।
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