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________________ १०० श्रमण भगवान् महावीर आर्द्रक ने कहा--घर-गृहस्थी में आसक्त दो हजार स्नातकों को भोजन करानेवालों के लिये नरक गति तैयार है । दया-धर्म के निन्दक और हिंसाधर्म के प्रशंसक तथा दुःशील मनुष्य को जो भोजन कराता है, वह चाहे राजा भी क्यों न हो, अन्धकारपूर्ण गति को ही प्राप्त होगा । आर्द्रक के कठोर और स्पष्ट उत्तर से ब्राह्मणों को उदासीन हुआ देख सांख्यमतानुयायी संन्यासी बोले-तुम और हम सभी धर्माराधक है । तुम्हारे और हमारे धर्म में अधिक अन्तर भी नहीं । दोनों मतों में आचार, शील और ज्ञान को ही मोक्ष का अंग माना है । संसार विषयक मान्यता में भी अपने शास्त्रों में अधिक भेद नहीं । सांख्य दर्शन के अनुसार 'पुरुष' अव्यक्त, महान् और सनातन है । न उसका क्षय होता है और न हास । तारागण में चन्द्र की भान्ति सब भूतगण में वह आत्मा एक ही है । अनगार आर्द्रक ने कहा--तुम्हारे सिद्धान्तानुसार न कोई मरेगा, न संसार प्रधान भ्रमण ही करेगा । एक ही आत्मा मान लेने पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि का व्यवहार भी नहीं रहेगा और न कोई कीट पतंग, पक्षी, साँप कहलायेगा, न नर देव और देवलोक ही । जो लोकस्थिति को न जानकर धर्म का उपदेश करते हैं वे स्वयं नष्ट होकर दूसरों का नाश करते हैं और इस अनादि अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं। केवलज्ञान से लोक को जानते हुए जो समाधिपूर्वक धर्म और सम्यक्त्व का कथन करते हैं वे ही अपनी आत्मा को तथा अन्य जीवों को संसार-सागर से पार करते हैं । आयुष्मानों ! यह भी तुम्हारा बुद्धिविपर्यासमात्र है जो चारित्रहीनों और चारित्रसंपन्नों की समानता का प्रतिपादन करते हो । इस प्रकार एकदण्डियों को परास्त करके आईक मुनि आगे जाने लगे, इतने में हस्तितापस आकर खड़े हुए और बोले—'हम वर्षभर में सिर्फ एक ही बड़े हाथी को बाण से मारते हैं तथा उसके मांस से वर्षभर जीविका चलाते हैं । इससे अन्य अनेक जीवों की रक्षा हो जाती है' ।। __ आईक ने कहा---वर्षभर में एक प्राणी की हिंसा करनेवाले भी साधु अहिंसक नहीं हो सकते, क्योंकि प्राणिबध से सर्वथा नहीं हटे हैं । इस पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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