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________________ तीर्थंकर-जीवन संभव नहीं कि खलपिण्डी को पुरुष अथवा पुरुष को खलपिण्डी मान लिया जाय । भिक्षुओं को ऐसा स्थूल असत्य कभी नहीं बोलना चाहिये, जिससे कर्मबन्ध हो । महाशय ! इस सिद्धान्त से तो आप तत्त्वज्ञान नहीं पा सकते, जीवों के शुभाशुभ कर्मविपाक को नहीं सोच सकते, लोक को करामलकवत् प्रत्यक्ष नहीं कर सकते और पूर्व पश्चिम समुद्र तक अपना यश भी नहीं फैला सकते । भिक्षुगण ! जो श्रमण जीवों के कर्म विपाक की चिन्ता करते हुए आहार विधि के दोषों को टालते हैं और निष्कपट वचन बोलते हैं वे ही संयत हैं और यही संयतों का धर्म है । जिनके हाथ लह से रंगे हए हैं, ऐसे असंयत मनुष्य दो सहस्त्र बोधिसत्त्व भिक्षुओं को नित्य भोजन कराते हुए भी यहाँ निन्दापात्र बनते हैं और परलोक में दुर्गति के अधिकारी । जो यह कहते हैं कि बड़े बकरे को मार और मिर्च पीपर डालकर तैयार किये हुए मांस के भोजन के लिये कोई निमन्त्रण दे तो हम उस मांस को खा सकते हैं, उसमें हमें कोई पाप नहीं लगता, वे अनार्यधर्मी और रसलोलुप हैं । ऐसा भोजन करनेवाले पाप को न जानते हुए भी पाप का आचरण करते हैं । जो कुशल पुरुष हैं वे मन से भी ऐसे आहार की इच्छा नहीं करते और न ऐसे मिथ्या वचन बोलते हैं । ज्ञातपुत्रीय ऋषि सब जीवों की दया की खातिर पाप दोष को वर्जते हुए दोष की शंका से भी उद्दिष्ट भक्त को ग्रहण नहीं करते, क्योंकि उन्होंने सब प्रकार की जीव हिंसा का त्याग किया है अत: जिसमें प्राणि हिंसा की शंका भी हो उस भोजन को वे ग्रहण नहीं करते । संसार में संयतों का यही धर्म है । इस आहारशुद्धिरूप समाधि और शील गुण को प्राप्त कर जो वैराग्यभाव से निर्ग्रन्थ धर्म में विचरते हैं वही तत्त्वज्ञानी मुनि इस लोक में कीर्ति प्राप्त करते हैं । शाक्य भिक्षुओं को निरुत्तर हुआ देख कर ब्राह्मण आगे बढ़े और अपनी जातीय श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुए बोले-'जो दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को नित्य भोजन कराते हैं वे महान् पुण्यस्कन्ध का उपार्जन करके देवगति को प्राप्त होते हैं. ऐसा वेदशास्त्र का वचन है ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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