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________________ श्रमण भगवान् महावीर आर्द्र-भगवान् को सर्वांश में लाभार्थी वणिक की उपमा नहीं दी जा सकती । लाभार्थी वणिक् प्राणियों की हिंसा करते हैं, परिग्रह पर ममता करते हैं, ज्ञातिसंग को न छोड़कर स्वार्थ के वश नये-नये प्रपंच रचते हैं। धन के लोभी और विषय भोगों में आसक्त वे आजीवकार्थ इधर-उधर मारेमारे फिरते हैं, ऐसे कामी और विषयगृद्ध वणिकों की उपमा भगवान् को नहीं दी जा सकती । आरंभ और परिग्रहमग्न वणिकों की प्रवृत्ति को तुम लाभकारी प्रवृत्ति कहते हो, यह भूल है । वह प्रवृत्ति उनके लाभ के लिये नहीं, वरंच दुःख के लिये है । जिस प्रवृत्ति का संसार भ्रमण ही फल है उसको लाभदायक कैसे कह सकते हैं ? आर्द्रक मुनि का शाक्यपुत्रीय भिक्षुओं के साथ संवाद आर्द्रक के उत्तर से निरुत्तर होकर गोशालक ने अपना रास्ता पकड़ा और मुनि आगे चले । इतने में शाक्यपुत्रीय भिक्षुओं ने उन्हें रोका और कहाआई ! वणिक के दृष्टान्त द्वारा बाह्य प्रवृत्ति का खण्डन करके तुमने बहुत अच्छा किया । हमारा भी ऐसा ही सिद्धान्त है । बाह्य प्रवृत्ति बन्ध-मोक्ष का प्रधान कारण नहीं प्रत्युत अन्तरङ्ग व्यापार ही इसके प्रधान अङ्ग हैं । हमारा तो यहाँ तक मन्तव्य है कि यदि कोई व्यक्ति खलपिण्डी को पुरुष अथवा तूंबे को बालक समझता हुआ सूल से बींध कर पकाता है तो वह प्राणिवध के पाप से लिप्त होता है, और यदि कोई पुरुष को खलपिण्डी और बालक को तूंबा समझ कर सूल से बींध कर पकाता है तो भी वह प्राणिबध के पाप से लिप्त नहीं होता । इस प्रकार खलपिण्डी समझ कर पुरुष को अथवा तूंबा समझ कर बच्चे को सूल से बींध कर पकाया हो तो उस मांस का बुद्ध भी भोजन कर सकते हैं। हमारे शास्त्रानुसार नित्य दो हजार बोधिसत्त्व भिक्षुओं को भोजन कराने वाले मनुष्य, महान् पुण्य स्कन्धों का उपार्जन कर महा सत्त्ववन्त 'आरोग्य देव' होते हैं । आर्द्र--संयतों के लिये यह अयोग्य है कि वे इस प्रकार हिंसाजन्य कार्य को निर्दोष कहें । जो ऐसे कामों का उपदेश देते हैं और जो उसे सुनते हैं, वे दोनों अनुचित काम करते हैं । जिसे पुरुष और खलपिण्डी के भेद का भी ज्ञान नहीं वह पुरुष अवश्य मिथ्यादृष्टि एवं अनार्य होगा, अन्यथा यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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