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तीर्थंकर - जीवन
आर्द्रक- गोशालक संवाद
उस समय भगवान् के शिष्य आर्द्रक मुनि भगवान् को वन्दन करने के लिए गुणशील में जा रहे थे। रास्ते में उन्हें गोशालक मिला । आर्द्रक को वहीं मार्ग में रोककर वह बोला- आर्द्र ! जरा सुन, तुझे एक पुराना इतिहास हूँ ।
आर्द्र-कहिये ।
गोशालक - तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण महावीर पहले एकान्तविहारी थे, और अब ये साधुओं की मंडलियों को इकट्ठा करके उनके आगे व्याख्यानों की झड़ियाँ लगाते हैं ।
आर्द्र - हाँ, जानता हूँ । पर आप कहना क्या चाहते हैं ?
गोशालक --- मेरा तात्पर्य यह है तुम्हारा धर्माचार्य अस्थिर चित्त है । पहले वे एकान्त में रहते, एकान्त में विचरते और सभी तरह की खटपटों से दूर रहते थे । अब वे साधुओं की मण्डली में बैठकर मनोरंजक उपदेश देते हैं । क्या इस प्रकार लोकरञ्जन करके वे अपनी आजीवका नहीं चला रहे हैं ? इस प्रकार की प्रवृत्ति से इनके पूर्वापर जीवन में विरोध खड़ा होता है, इसका भी इन्हें ख्याल नहीं । यदि एकान्त विहार में श्रमणधर्म था तो अब वे श्रमणधर्म से विमुख हैं और यदि इनका वर्तमान जीवन ही यथार्थ माना जाय तो पहला जीवन निरर्थक था, यह सिद्ध होगा । भद्र ! तुम्हारे गुरु की पूर्वापर विरुद्ध जीवनचर्या किसी भी तरह निर्दोष नहीं कही जा सकती । जहाँ तक मैं समझता हूँ, महावीर का वह जीवन ही यथार्थ था जब कि मैं उनके साथ था और वे निस्संगभाव से एकान्तवास का आश्रय लिए हुए थे । अब वे एकान्त विहार से ऊबकर सभा में बैठते हैं और उपदेशक के बहाने लोगों को इकट्ठा करके अपनी आजीवका चलाते हैं । इन बातों से स्पष्ट है कि इनका मानस बिलकुल अव्यवस्थित है ।
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आर्द्र—महानुभाव ! आपका यह कथन केवल ईर्ष्याजन्य है । वस्तुतः आपने भगवान् के जीवन का रहस्य ही नहीं समझा । इसी लिए तो आपको उनके जीवन में विरोध दिखाई देता है । यह न समझने का ही परिणाम है ।
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