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श्रमण भगवान् महावीर पहले एकान्त -विहारी और अब साधु मण्डल के बीच उपदेश करना, इसमें विरोध की बात ही क्या है ? जब तक वे छद्मस्थ थे तब तक एकान्तविहारी ही नहीं वरंच प्रायः मौनी भी थे, और यह वर्तन तपस्वी जीवन के अनुरूप भी था । अब वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, उनके रागद्वेष के बन्धन समूल नष्ट हो चुके हैं, अब उनके हृदय में आत्मसाधना के स्थान जगत् के कल्याण की भावना है। प्राणिमात्र के कल्याण का आकांक्षी पुरुष हजारों के बीच में बैठकर उपदेश करता हुआ भी एकान्तसेवी है । वीतराग के लिये एकान्त और लोकाकुल प्रदेश में कुछ भी भेद नहीं । निर्लेप आत्मा को सभा या समूह लिप्त नहीं कर सकते और धर्मोपदेश प्रवृत्ति तो महापुरुषों का आवश्यक कर्तव्य है । जो क्षमाशील तथा जितेन्द्रिय है, जिसका मन समाधि में है, वह दोषरहित भाषा में धर्मदेशना करे उसमें कुछ भी दोष नहीं । जो पाँच महाव्रतों का उपदेश करता है, जो पाँच अणुव्रतों की उपयोगिता समझाता है, जो पाँच आश्रव और पाँच संवर को हेय उपादेय बतलाता है और जो अकर्तव्य कर्म से निवृत्त होने का उपदेश करता है वही बुद्धिमान् है, वही कर्ममुक्त होनेवाला सच्चा श्रमण है।
गोशालक-यदि ऐसा है तो सचित्त जल के पान, सचित्त बीज तथा आधार्मिक आहार के भोजन और स्त्रीसंग में भी दोष नहीं हो सकता । हमारे धर्म में तो यही कहा है कि एकान्त-विहारी तपस्वी के पास पाप फटकता तक नहीं ।
आर्द्र-सचित्त जल के पान, बीज तथा आधार्मिक आहार के भोजन और स्त्रीसंग आदि को जो जानबूझ कर सकता है, वह साधु नहीं हो सकता । सचित्त-जलपायी, बीजभोजी और स्त्रीसेवी भी यदि श्रमण कहलायेंगे तब गृहस्थ किसे कहा जायगा ? गोशालक ! सचित्त जलपायी और सजीव-बीजभोजी उदरार्थी भिक्षुओं का भिक्षावृत्ति अनुचित है । ज्ञातिसंग को न छोड़ने वाले वे रंक भिक्षु कभी मुक्त नहीं होंगे ।
गोशालक-अरे आईक ! इस कथन से तो तू सभी अन्य तीर्थकों की निन्दा कर रहा है और बीज-फल- भोजी तपस्वी महात्माओं को कुयोगी और उदरार्थी भिक्षु कहता है ?
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