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________________ ९४ श्रमण भगवान् महावीर भगवान् महावीर का धर्मोपदेश सुनकर पोग्गल निर्ग्रन्थ प्रवचन का श्रद्धालु हो गया तथा भगवान् के पा श्रमणधर्म स्वीकार कर उनके संघ में मिल गया तथा श्रामण्य लेकर स्थविरों के पास निर्ग्रन्थ प्रवचन की एकादशाङ्गी का अभ्यास किया तथा विविध तपों द्वारा कर्ममुक्त हो निर्वाण प्राप्त किया । इसी समय आलभिया निवासी करोड़पति गृहस्थ चुल्लशतक तथा उसकी स्त्री बहुला और दूसरे अनेक नरनारियों ने भगवान् महावीर के पास श्राद्धधर्म स्वीकार किया । आलभिया से भगवान् राजगृह पधारे और मंकाती, किंक्रम, अर्जुन, और काश्यप आदि को दीक्षा दे उन्हें श्रमणसंघ में सम्मिलित किया । । भगवान् का यह चातुर्मास्य राजगृह में हुआ । १९. उन्नीसवाँ वर्ष (वि० पू० ४९४-४९३) चातुर्मास्य के बाद भी भगवान् राजगृह में ही धर्मप्रचारार्थ ठहरे । इस सतत प्रचार का आशातीत फल हुआ । राजा श्रेणिक को, जो स्वयं वृद्ध थे, भगवान के धर्मशासन पर इतनी श्रद्धा और रुचि उत्पन्न हुई कि उन्होंने राजगृह में यह उद्घोषणा करवा दी कि 'जो कोई भगवान् महावीर से दीक्षा लेना चाहे वह खुशी से ऐसा कर सकता है। यदि उसके पीछे कोई पालन-पोषण करने योग्य कुटुम्बपरिवार होगा तो उसके पालन-पोषण की चिन्ता स्वयं राजा करेगा' । श्रेणिक की उपर्युक्त घोषणा का बड़ा सुन्दर प्रभाव पड़ा । अन्यान्य नागरिकों के अतिरिक्त जालि कुमार, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहास, अभय, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदंत, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, पूर्णसेन इन श्रेणिक के तेईस पुत्रों और नन्दा, नन्दमती, नन्दोत्तरा, नन्दसेणिया, महया, सुमरुता, महामरुता, मरुदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना और भूतदत्ता नामक श्रेणिक की तेरह रानियों ने प्रवजित होकर भगवान् महावीर के श्रमणसंघ में प्रवेश किया । १. भ० श० ११ उ० १२ प० ५५१-५५२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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