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तीर्थंकर-जीवन
९३ आलभिया के चौक बाजारों में अपने ज्ञान का प्रचार करने लगा । बाजारों में पोग्गल के सिद्धान्त की चर्चा हो रही थी । कुछ लोग उसके ज्ञान की प्रशंसा करते थे और कुछ उसमें शंकाए उठाते थे ।
इसी अवसर पर भगवान् महावीर आलभिया के शंखवन में पधारे । तपस्वी इन्द्रभूति भगवान् की आज्ञा ले भिक्षा के लिये नगर में गये और पोग्गल के सिद्धान्तविषयक जनप्रवाद को सुना । भिक्षाचर्या कर गौतम वापस आये और नगर में सुनी पोग्गल के सिद्धान्त की चर्चा भगवान् के आगे व्यक्त करते हुए बोले-भगवन् ! आजकल आलभिया में पोग्गल परिव्राजक के ज्ञान और सिद्धान्त की चर्चा हो रही है । पोग्गल कहता है 'ब्रह्मलोक तक ही देव और देवलोक हैं, दस हजार से दस सागरोपम तक ही देवों का आयुष्य है ।' भगवन् ! पोग्गल की इस मान्यता के संबंध में आपका अभिप्राय क्या है ?
गौतम को उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा-पोग्गल का कथन ठीक नहीं है । देवों की आयुष्यस्थिति कम-से-कम दस हजार वर्ष की और अधिक-से-अधिक तेंतीस सागरोपम की है । उसके उपरान्त देव और देवलोकों का अभाव है ।
महावीर का यह स्पष्टीकरण सभी उपस्थिति जनों ने सुना । सभा विसर्जित हुई और भगवान् के वचनों की प्रशंसा करते हुए नागरिक अपनेअपने स्थानों को चले गये ।
भगवान महावीर का कथन पोग्गल के कानों तक पहँचा । वह अपने ज्ञान के विषय में शंकित हो उठा । महावीर सर्वज्ञ हैं, तीर्थंकर हैं, महातपस्वी हैं, यह तो पोग्गल पहले ही सुन चुका था । अब उसे अपने ज्ञान पर विश्वास नहीं रहा, वह ज्यों-ज्यों ऊहापोह करता था त्यों-त्यों उसका विभङ्ग ज्ञान लुप्त होता जाता था । थोड़े ही समय में उसे ज्ञात हो गया कि उसका यह ज्ञान भ्रान्तिपूर्ण था । अब उसने भगवान् महावीर की शरण में जाने के लिए शंखवन की ओर प्रस्थान किया । समवसरण में पहुँचकर विधिपूर्वक वन्दन नमस्कार कर वह उचित स्थान पर बैठ गया ।
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