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श्रमण भगवान् महावीर १८. अठारहवाँ वर्ष (वि० पू० ४९५-४९४)
वीतभयपत्तन से विचरते हुए भगवान् विदेह देश स्थित वाणिज्यग्राम पहुँचे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं बिताया । वणिज्य ग्राम का चातुर्मास्य पूरा कर भगवान् महावीर ने बनारस की तरफ विहार कर दिया और अनेक स्थानों में निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रचार करते हुए वे बनारस पहुँचे । बनारस के तत्कालीन राजा जितशत्रु ने भगवान् का बहुत सत्कार किया । यहाँ के ईशानदिशाभागस्थित कोष्ठक चैत्य में ठहर कर भगवान् ने लोगों को आहत प्रवचन का उपदेश दिया । फलस्वरूप यहाँ के अनेक गृहस्थों ने श्रावकधर्म अंगीकार किया, जिनमें चुलनीपिता और उसकी स्त्री श्यामा तथा सुरादेव और उसकी स्त्री धन्या के नाम अग्रगण्य हैं । ये दोनों ही करोड़पति गृहस्थ भगवान के धर्मशासन के स्तम्भ समान थे ।
बनारस से राजगृह जाते हुए भगवान् बीच में आलभिया के शंखवनउद्यान में कुछ समय तक ठहरे । आलभिया काशी देश की एक बड़ी नगरी थी जो बनारस-राजगृह के मार्ग में पड़ती थी । पोग्गल परिव्राजक की प्रव्रज्या
शंखवन के पास पोग्गल नामक एक परिव्राजक रहता था । वह ऋग्वेदादि वैदिक धर्मशास्त्रों का ज्ञाता और प्रसिद्ध तपस्वी था । निरन्तर षष्ठतप के साथ सूर्य के सन्मुख ऊर्ध्वबाहु खड़ा होकर आतापना किया करता था । इस कठिन तप, तीव्र आतापना और स्वभाव की भद्रता के कारण पोग्गल को विभंगज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे वह ब्रह्मदेवलोक तक के देवों की गति-स्थिति को प्रत्यक्ष देखने लगा ।
इस प्रत्यक्ष ज्ञान की प्राप्ति से पोग्गल सोचने लगा-मुझे विशिष्ट आत्मज्ञान प्राप्त हुआ है । इस प्रत्यक्ष ज्ञान से मैं देख रहा हूँ कि देवों का कम से कम दस हजार वर्ष का आयुष्य होता है और अधिक से अधिक दस सागरोपम का । इसके आगे न देव हैं न देवलोक । पोग्गल तपोभूमि से आश्रम की ओर चला और त्रिदण्ड, कुण्डिका तथा धातुरक्त वस्त्र लेकर आलभिया के परिव्राजकाश्रम में पहुँचा । त्रिदण्ड, कुंडिकादि वहाँ रखकर
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