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तीर्थंकर-जीवन
९१ न होगी । इतनी लम्बी यात्रा करके भगवान् वीतभय नगर पहुँचे और राजा उदायन को श्रमण-धर्म में दीक्षित कर वापस अपने चातुर्मास्य के केन्द्र की ओर विहार कर दिया ।
मरुभूमि की लम्बी यात्रा, गर्मी का मौसम और निर्ग्रन्थों की कठिन चर्या, इन सब कारणों से भगवान् के कई शिष्यों को इस विहार में प्राणों पर खेलना पड़ा । सिनपल्ली की रेतीली मरुभूमि में कोसों तक बस्ती का नाम तक न था । भगवान् उस बीहड़ मार्ग से चलते हुए पूर्व देश में जा रहे थे । आपके बहुत से शिष्य जो अमीर और चलने के कम अभ्यासी थे भूख और प्यास से कष्ट पा रहे थे। उस समय मार्ग में आपको तिलों की गाड़ियाँ मिलीं । महावीर तथा उनके शिष्य-परिवार को देखकर तिलवालों ने कहा-भट्टारक ! लीजिये, इन तिलों से अपनी क्षुधा शान्त कीजिये ।
यद्यपि तिल अचित्त थे और उनके मालिक दे भी रहे थे, तो भी भगवान् ने अपने शिष्यों को तिल स्वीकार करने की आज्ञा नहीं दी । क्योंकि तिलों के अचित्त होने की बात वे स्वयं तो जानते थे पर छद्मस्थ श्रमण उनको अचित्त कैसे समझते ? यदि आज अचित्त जानकर साधुओं को उनके लेने की आज्ञा दी जाय तो आगे जाकर इसी दृष्टान्त को सामने रखकर सचित्त तिल लेने की भी प्रवृत्ति चल पड़े, इस कारण भगवान् ने उनके लेने की आज्ञा नहीं दी ।
इसी विहार में जब साधु प्यास से आकुल हो रहे थे, मार्ग में एक अचित्त पानी का हृद आया । भगवान् जानते थे कि यह जल अचित्त है, साधु इसे काम में ले सकते हैं । परन्तु सभी हृदों का पानी अचित्त नहीं होता । अगर आज इस हृद के पानी का साधुओं को उपयोग करने दिया जाय तो भविष्य में अन्य सचिन जलहूदों के पानी का उपयोग करने की प्रवृत्ति भी चल पड़ेगी, इस विचार से भगवान् महावीर ने हुद का पानी पीने की आज्ञा नहीं दी ।
१. भगवती श० १३ उ० ६ ५० ६१८.. ६२० । कल्पवृणि ५० ६४-६५ ।
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