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________________ ९० श्रमण भगवान् महावीर उक्तक्रम से दस कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण छ: आरों के समुदाय को उत्सर्पिणी काल कहते हैं । दस कोटाकोटि प्रमाण अवसर्पिणी और दस कोटाकोटि प्रमाण उत्सर्पिणी मिलकर बीस कोटाकोटि सागरोपम काल होता है । भगवान् के आगमन से राजगृह निवासियों में निर्ग्रन्थ धर्म का काफी प्रचार हुआ । राजगृह के प्रसिद्ध धनपति शालिभद्र और धन्य आदि ने दीक्षायें ग्रहण की और अनेक व्यक्तियों ने गृहस्थ धर्म अंगीकार किया । इस वर्ष का वर्षा चातुर्मास्य भगवान् ने राजगृह में ही बिताया। और वर्षाकाल व्यतीत होते ही चम्पा की ओर विहार कर दिया । १७. सत्रहवाँ वर्ष (वि० पू० ४९६-४९५) चम्पा में दत्त नाम के राजा थे और रक्तवती नाम की रानी । इनके महचन्द्रकुमार नामक एक पुत्र था जिसने भगवान् के उपदेश को सुनकर इस असार संसार से विरक्त हो श्रमणधर्म को ग्रहण किया । उस समय सिन्धुसौवीरादि अनेक देशों का स्वामी राजा उदायन सिन्धु की राजधानी वीतभयपत्तन में राज्यशासन कर रहा था । उदायन जैन श्रमणोपासक था । वह पर्व दिन का पौषध ग्रहण कर अपनी पौषधशाला में धर्म जागरण कर रहा था । आत्मचिन्तन करते हुए उसने सोचा-'धन्य है वे ग्राम-नगर जहाँ श्रमण भगवान् विचरते हैं । भाग्यशाली हैं वे राजा और सेठ साहूकार जो इनका वन्दन-पूजन करते हैं । यदि भगवान् मेरे पर अनुग्रह कर वीतभय के मृगवन उद्यान में पधारें तो मैं भी उनका वन्दन-पूजन और सेवा करके भाग्यशाली बनूँ ।" चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में विराजमान भगवान महावीर ने उदायन के इस मनोभाव को जाना और उसे प्रतिबोध देने के लिये चम्पा से वीतभय नगर की ओर विहार किया । चम्पा से वीतभय की दूरी हजार मील से कम १. भ० श० ६ उ० ७ प० २७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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