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तीर्थंकर - जीवन
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जयन्ती — 'भगवन् ! भवसिद्धिकता (मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता ) जीवों को स्वभाव से ही प्राप्त होती है या अवस्था विशेष से ?"
महावीर — ‘भवसिद्धिकता स्वभाव से ही होती है, अवस्था विशेष से नहीं । जो जीव भवसिद्धिक हैं वे अपने स्वभाव से ही वैसे हैं तथा रहेंगे और जो भवसिद्धिक नहीं, वे किसी भी अवस्था में किसी भी उपाय से, भवसिद्धिक नहीं हो सकते ।'
जयन्ती — 'भगवन् ! क्या सब भवसिद्धिक मोक्षगामी हैं ?' भगवान् — 'हाँ, जो भवसिद्धिक हैं वे सब मोक्षगामी हैं ।'
जयन्ती - 'भगवन् ! यदि सब भवसिद्धिक जीवों की मुक्ति हो जायगी तब तो यह संसार कालान्तर में भवसिद्धिक जीवों से रहित ही हो जायगा ।'
महावीर—'नहीं, जयन्ती ! ऐसा नहीं हो सकता । जैसे सर्वाकाशप्रदेशों की श्रेणि में से कल्पना से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश कम करने पर भी आकाश-प्रदेशों का कभी अन्त नहीं होता, इसी प्रकार भवसिद्धिक अनादिकाल से सिद्ध हो रहे हैं और अनन्तकाल तक होते रहेंगे । फिर भी वे अनन्तानन्त होने से समाप्त नहीं होंगे और संसार कभी भी भवसिद्धिक जीवों से रहित नहीं होगा ।'
जयन्ती — 'भगवन् । ऊँघना अच्छा है या जागना ?'
महावीर—‘कुछ जीवों का ऊँघना अच्छा है और कुछ का जागना ।' जयन्ती — 'भगवन् ! यह कैसे ? दोनों बातें अच्छी कैसे हो सकती हैं ?'
महावीर —' अधर्म के मार्ग पर चलनेवाले, अधर्म का आचरण करनेवाले और अधर्म से अपनी जीविका चलानेवाले जीवों का ऊँघना ही अच्छा है, क्योंकि ऐसे जीव जब ऊँघते हैं तब बहुत से जीवों की हिंसा करने से बचते हैं तथा बहुतेरे प्राणियों को त्रास पहुँचाने में असमर्थ होते हैं । वे सोते हुए अपने को तथा अन्य जीवों को दुःख नहीं पहुँचा सकते अतः ऐसे जीवों का सोना ही अच्छा है । और जो जीव धार्मिक, धर्मानुगामी, धर्मशील,
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