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श्रमण भगवान् महावीर के प्रसिद्ध राजा सहस्रानीक का पौत्र तथा राजा शतानीक का पुत्र और वैशालीपति चेटक का दोहता होता था । वह अभी नाबालिग था । अतः राज्य का प्रबन्ध उसकी माता मृगावती देवी प्रधानों की सलाह से करती थी।
उस समय कौशाम्बी में जयन्ती नामक एक जैन-श्राविका की बड़ी प्रसिद्धि थी । जयन्ती कौशाम्बी के स्वर्गीय राजा सहस्रानीक की पुत्री, शतानीक की बहन और उदयन की फूफी लगती थी । वह आर्हतधर्म की अनन्य उपासिका और धर्म की जानकार थी । वैशाली की तरफ से कौशाम्बी आनेवाले आर्हतश्रावक बहुधा इसी के यहाँ ठहरा करते थे । इस कारण वह 'वैशाली के आर्हतश्रावकों की प्रथम स्थानदात्री' के नाम से अधिक प्रसिद्धि थी । जयन्ती के प्रश्नोत्तर
भगवान् महावीर के आगमन से राजा-प्रजा सब आनन्दित हुए । कौशाम्बीपति राजा उदयन ने राज-परिवार, नौकर-चाकर और फौजफांटे के साथ बड़े भारी जुलूस के रूप में चन्द्रावतरण चैत्य की तरफ प्रयाण किया । राजमाता मृगावती देवी, जयन्ती आदि कलीन स्त्रियाँ भी अपने-अपने परिकर के साथ रथों में बैठ भगवान् के वन्दनार्थ जुलूस के साथ चलीं । सब ने समवसरण के समीप पहुँचकर सवारियों का त्याग किया और सभा में पहुँचे, वन्दन करने के उपरान्त धर्मश्रवण की इच्छा से सब योग्य स्थानों पर बैठ गये । भगवान् महावीर ने उस बृहत्सभा में देर तक धर्मोपदेश किया जिसे सुनकर सभाजन परम संतुष्ट हुए और पुनः भगवान् को वन्दन कर अपनेअपने घर लौटे ।
सभा विसर्जित हो जाने पर भी जयंती अपने परिवार के साथ वहीं ठहरी रहीं । अवसर पाकर धार्मिक चर्चा शुरू करते हुए जयन्ती ने पूछा'भगवान् ! जीव भारीपन को कैसे प्राप्त होते हैं ?
महावीर-'जयन्ती ! जीवहिंसा, असत्य वचन, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि अठारह पापस्थानकों के सेवन से जीव भारीपन को प्राप्त होते हैं और चारों गतियों में भटकते हैं।'
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