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तीर्थकर-जीवन होना चाहता हूँ । प्रभो, स्वीकृति दीजिए ।
स्वीकृति मिलने पर ऋषभदत्त वहाँ से ईशानदिशा विभाग की ओर कुछ दूर हटे । वहाँ वस्त्राभूषण पुष्पमाला आदि का त्याग कर तथा पञ्चमुष्टिक लोच कर भगवान् के समीप आए और वन्दन कर बोले-भगवन् यह संसार जल रहा है-जरामरण रोगशोकादि विपदाओं की आग से यह संसार चारों ओर से प्रज्वलित हो रहा है । निस्तारक प्रभो ! इस आग से मुझे बचाइये ।
भगवान् ने प्रव्रज्या देकर ऋषभदत्त को अपने श्रमणसंघ में प्रविष्ट कर लिया । स्थविरों के पास ज्ञान और क्रिया का अभ्यास करते-करते ऋषभदत्त अनगार एकादशांगधारी तपस्वी स्थविर हुए और बहुत वर्षों तक तप-संयम का आराधन करने के उपरान्त अनगार ऋषभदत्त ने मासिक अनशन कर निर्वाण प्राप्त किया ।
देवानन्दा ने भी उसी सभा में प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली और आर्या चन्दना की आज्ञा में रहते हुए एकादशांगी का अध्ययन किया और नानाविध तप-जप से कर्मों का क्षय कर निर्वाण प्राप्त किया ।
__ भगवान महावीर की पुत्री ने भी-जो जमालि से ब्याही थी-इसी वर्ष एक हजार स्त्रियों के साथ आर्या चन्दना के पास दीक्षा ले कर भगवान् के श्रमणीसंघ में प्रवेश किया।
___लगभग वर्षभर भगवान् ने विदेह में विहार किया और वर्षा चातुर्मास्य वैशाली में बिताया । १५. पंदरहवाँ वर्ष (वि० पू० ४९८-४९७)
चातुर्मास्य समाप्त होने पर भगवान् महावीर ने वैशाली से वत्सभूमि की ओर विहार किया । मार्ग में अनेक स्थानों में धर्म-प्रचार करते-करते वे कौशाम्बी पहुँचे और नगर के बाहर 'चन्द्रावतरण चैत्य' में वास किया ।
कौशाम्बी के तत्कालीन राजा का नाम उदयन था । उदयन वत्सदेश
० ९ । उ० ३३ । प० ४५६-४५८ ।
श्रमण-६
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