________________
श्रमण भगवान् महावीर ऐसे ज्ञानी और तपस्वी अर्हन्तों का नामश्रवण भी फलदायक होता है तो सामने जाकर विनय, वन्दन - नमस्कार, सेवा और धार्मिक चर्चा करने का तो कहना ही क्या ! प्रिये ! चलें हम भी भगवान् महावीर का वन्दन - नमस्कार और सेवाभक्ति करें । यही कार्य हमारे ऐहिक तथा पारलौकिक हित और कल्याण के लिए होगा ।
८०
स्वामी के मुख से उक्त प्रस्ताव सुनकर देवानन्दा को बड़ा संतोष हुआ और सहर्ष पति के वचनों का समर्थन किया ।
ऋषभदत्त ने सेवकजनों को रथ तैय्यार करने को कहा । वे स्वामी की आज्ञा पाते ही अत्युत्तम रथ को तैय्यार करके तुरन्त उपस्थानशाला में ले आए ।
ऋषभदत्त और देवानन्दा दोनों ने स्नान करके अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण पहने और दास दासियों के परिकर के साथ उपस्थानशाला में जाकर रथ में बैठे । रथ ब्राह्मणग्राम के मध्य भाग में होता हुआ बहुसाल में पहुँचा । भगवान् की धर्मसभा दृष्टिगोचर होते ही रथ ठहरा लिया गया और दोनों पति-पत्नी आगे पैदल चले । विधिपूर्वक सभा में जाकर वन्दन - नमस्कार करके सभा में बैठ गये ।
देवानन्दा निर्निमेष नेत्रों से महावीर को देख रही थीं । उसके नेत्र विकसित हो रहे थे, स्तनों से दूध का स्राव हो रहा था, रोमाञ्च से उसका सारा शरीर पुलकित हो उठा था । देवानन्दा के इन शारीरिक भावों को देखकर गौतम ने भगवान् से प्रश्न किया- भगवन् ! आपके दर्शन से देवानन्दा का शरीर पुलकित क्यों हो गया ? इनके नेत्रों में इस प्रकार की प्रफुल्लता कैसे आ गई और इनके स्तनों से दुग्धस्राव क्यों होने लगा ?
भगवान् ने उत्तर दिया — गौतम ! देवानन्दा मेरी माता हैं और मैं इनका पुत्र हूँ । देवानन्दा के शरीर में जो भाव प्रकट हुए उनका कारण पुत्रस्नेह है । इसके बाद भगवान् ने उस महती सभा के सामने धर्मोपदेश किया । सभा के विसर्जित होने के बाद ऋषभदत्त उठा और भगवान् को नमस्कार कर बोला- भगवन् ! आपका कथन यथार्थ है । मैं आपके धर्म में प्रव्रजित
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org