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ने श्रीसंघ में बावेला मचा रखा था । मुनि श्री कल्याणविजयजी ने पं० बेचरदासजी के उन विचारों की समालोचना अनेक तर्क व उदाहरण के साथ की, जिससे वे श्री जैन संघ में एक विद्वान् लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हो गये ।
___मुनि श्री ने शुरुआत में गुजराती में व बाद में हिंदी में काफी कुछ लिखा है । संस्कृत भाषा में 'धर्मसंग्रहणी' ग्रंथ की सविस्तर प्रस्तावना लिखी है । कई संस्कृत स्तोत्र भी रचे हैं ।
पाली-मराठी-बंगाली के उपरांत कई पर भी उनका प्रभुत्व असरकारक था ।
उनके इतिहास विषयक ज्ञान से अनेक विद्वान् प्रभावित थे । इस्वी सन् १९१९ में 'ओरिएन्टल कॉन्फरन्स' में पधारने के लिए मुनिश्री को आमन्त्रण भेजा गया था । मुनिश्री जा नहीं पाये थे ।
__ इसी तरह छठी गुजराती परिषद का निमंत्रण भी वे स्वीकार नहीं पाये थे, पर उन्होंने अपना लेख 'पंद्रहवी सदी में बोली जानेवाली गुजराती भाषा' के शीर्षक से लिख भेजा था । मुनिश्री का वाचन अत्यंत विशाल था । पढ़ने के बाद उपयोगी-विशिष्ट बातों की नोंद वे अवश्य किया करते थे । वैसी टिप्पणों की भरी हुई अनेक नोट्स-कॉपियाँ आज भी जालोर में सुरक्षित है।
वि० सं० १९९४, मिगसर सुद ११ के दिन अहमदाबाद में विद्याशाला-उपाश्रय में गुरुजनों ने दोनों मुनि श्री कल्याणविजयजी व मुनि श्री सौभाग्यविजयजी को गणि व पंन्यासपद से विभूषित किये ।
पंन्यास पद प्राप्त श्री कल्याणविजयजी के वरद हाथों अनेक जगह पर अंजनशलाका प्रतिष्ठादि विधान हुए । जालोर में श्री नंदीश्वरद्वीप की स्थापना उन्हीं के मार्गदर्शन तले हुई है ।
वि० सं० २०३२, आषाढ़ शुक्ला १३ के दिन सबेरे ९-१५ बजे ८८ बरस की आयु में पूज्य श्री का स्वर्गवास हो जाने से जैन संघ में एक महान इतिहासवेत्ता का स्थान रिक्त हो गया जिसकी आपूर्ति होना असंभव सा है ।
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