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श्रयण भगवान् महावीर ७. भोगोपभोग परिमाण-खान-पान, मौज-शौक और औद्योगिक प्रवृत्तियों का नियमन ।
८. अनर्थ दण्ड विरमण-निरर्थक प्रवृत्तियों का त्याग ।
९. सामायिक-प्रतिदिन कम से कम मुहूर्त पर्यन्त सांसारिक प्रवृत्तियों को छोड़कर समभाव निवृत्ति मार्ग में स्थिर होना ।
१०. देशावकाशिक-स्वीकृत मर्यादाओं का कम करना ।
११. पौषधोपवास-~-अष्टमी चतुर्दशी आदि के दिनों में सांसारिक प्रवृत्तियों को छोड़कर आठ पहर तक धार्मिक जीवन बिताना ।
१२. अतिथिसंविभाग पौषधोपवास की समाप्ति पर श्रमण आदि अतिथि को आहार आदि का दान देना ।
उक्त १२ नियम गृहस्थों के द्वादश व्रत कहलाते हैं। इन नियमों को पालनेवाला 'श्रमणोपासक' क्रमशः आत्मशुद्धि करता हुआ मुक्ति के निकट पहुँचता है और भवान्तर में श्रमनधर्म की प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
जिन मनुष्यों में श्रमण तथा श्रमणोपासक धर्म के पालन करने का सामर्थ्य नहीं उन्हें भी अपनी चित्तभूमि में सुदेव-सुगुरु-सुधर्म-रूप तत्त्वत्रयी में श्रद्धा बनाये रखना चाहिये, जिस तरह मार्ग स्थित कमजोर आदमी भी कभी न कभी इष्ट स्थान को पा लेता है उसी तरह श्रद्धावान् जीव अव्रती भी मार्गाभिमुख रह कर कभी न कभी इष्ट स्थान को जरूर पाता है।
भगवान् महावीर की तात्त्विक देशना से प्रभावित होकर सभाजनों में से राजकुमार मेघ, नन्दीषेण आदि अनेक पुरुषों ने श्रमणधर्म की प्रव्रज्या ली, राजकुमार अभय और सुलसा आदि अनेक स्त्री-पुरुषों ने गृहस्थधर्म स्वीकार किया और राजा श्रेणिक आदि अनेक मनुष्यों ने भगवान् के प्रवचन पर श्रद्धा प्रकट की ।
उस साल का वर्षा -चातुर्मास्य भी भगवान् ने राजगृह में ही बिताया और अनेक मनुष्यों को धर्मपथ पर लाकर उनका उद्धार किया ।
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