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________________ तीर्थंकर - जीवन ४. मैथुन विरमण --- मन वचन काय से मैथुन सेवन ( विषय भोग ) करने, कराने तथा अनुमोदन करने का त्याग । ५. परिग्रह विरमण —— मन वचन काय से धन-धान्यादि बाह्य और रागद्वेषादि आभ्यन्तरिक परिग्रह ग्रहण करने, कराने और अनुमोदन करने का त्याग । इन महाव्रतों का पालन करने वाले संयमी 'सर्वविरत' श्रमण संसारभ्रमण का अन्त कर शीघ्र ही सात-आठ भवों के अंदर कर्ममुक्त होकर आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं । गृहस्थधर्म ७७ जो मनुष्य उपर्युक्त पंच महाव्रतात्मक धर्ममार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते, पुरुषार्थ की कमी के कारण अपनी आत्मा को सर्वविरति चारित्र के लायक नहीं पाते वे गृहस्थाश्रम में रह कर देशविरति धर्म से भी अपनी आत्मशुद्धि कर सकते हैं । देश विरत संयमी 'श्राद्ध' अथवा 'श्रमणोपासक ' कहलाते हैं । श्रमणोपासक को द्वादश- व्रतात्मक देशविरति धर्म का पालन करना चाहिये १. स्थूल प्राणातिपात विरमण - त्रस ( चलते-फिरते ) जीवों की कारण हिंसा न करना । २. स्थूल मृषावाद विरमण — स्थूल झूठ न बोलना । ३. स्थूल अदत्तादान विरमण — जिसके लेने से चोर कहलाएँ ऐसी दूसरे की चीज स्वामी की आज्ञा बिना न लेना । ४. स्वस्त्री संतोष परस्त्री विरमण परस्त्री गमन का त्याग स्वस्त्री गमन का नियमन | ५. परिग्रह परिमाण चल-अचल सचित्त-अचित्त सभी प्रकार की संपत्ति का नियमन । ६. दिक्परिणाम —— सभी दिशाओं में जाने-आने का नियमन । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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