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श्रमण भगवान् महावीर जिनके भवभ्रमण का अन्त निकट आ गया हो, अन्तरंग नेत्र खुल गये हों और आत्मिक सुख प्राप्ति का समय मर्यादित हो गया हो उन्हीं योग्य प्राणियों के हृदय में सत्यधर्म की छाप पड़ती है, उन्हीं के चित्त में ज्ञानी का उपदेश श्रद्धा उत्पन्न कर सकता है । समय-वीर्य
संसार की अनन्त जीवराशि में मनुष्य बहुत कम हैं, मनुष्यों में धर्मश्रोता बहुत कम, श्रोताओं में श्रद्धालु बहुत कम और श्रद्धालुओं में भी संयममार्ग में प्रवृत्ति करने वाले सब से कम । वे सुनते तो हैं और श्रद्धा भी करते हैं पर उस मार्ग पर चलना खड्गधारा के ऊपर चलने से भी कठिन समझते हैं । वे कहते ही नहीं, हृदय से मानते भी हैं कि संसार असार है, कुटुम्ब मेला क्षणिक है, फिर भी वे संसार, कुटुम्ब और विषय का त्याग करने का पुरुषार्थ नहीं करते ।
भगवान ने कहा-देवानुप्रियो ! जब तक तुम संयम-मार्ग में अग्रसर न होगे तब तक कर्मक्षय कर मुक्ति के निकट न पहुँचोगे और शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक कष्टों से छुटकारा नहीं पा सकोगे । मुनिधर्म
संयमपथ के पथिक को सर्वप्रथम सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्म को पहचान कर उनमें दृढ़ श्रद्धा और विश्वास करना चाहिये और फिर पंच-महाव्रतात्मक धर्म का पालन कर विशुद्ध संयमी बनना चाहिये
१. प्राणातिपात विरमण-सूक्ष्म-स्थूल सभी प्रकार के जीवों की मानसिक, वाचिक तथा कायिक हिंसा करने, कराने तथा अनुमोदन करने का त्याग ।
२. मृषावाद विरमण-मनसा वाचा कर्मणा असत्य भाषण करने, कराने तथा अनुमोदन करने का त्याग ।
३. अदत्तादान विरमण-मन वचन काय से परकीय वस्तु लेन लिवाने और अनुमोदन करने का त्याग ।
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