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________________ तीर्थंकर - जीवन ७५ कर चले जाते हैं । इस संसार - नाटक का कभी अन्त नहीं होता और इसके पात्रों को कभी विश्राम नहीं मिलता । इस अनन्त कालीन नाटक में जीवों का सब से अधिक समय तिर्यञ्चगति में गया, उससे कम देव और नारकगति के रूपों में और सब से कम मनुष्यगति के रूप धारण करने में व्यतीत हुआ है [ मानव भव दुर्लभ है । आत्मा की मुक्ति मनुष्य भव में— केवल मनुष्य भव में ही होती है । देव भव पुण्य फल भोग की अपेक्षा श्रेष्ठ हो सकता है पर आत्महित की दृष्टि से वह मनुष्य भव का मुकाबला नहीं कर सकता । तिर्यञ्च और नारक भव प्रायः पाप फल भोगने के स्थान होने से इन गतियों के जीव आत्मिक उन्नति करने में असमर्थ होते हैं । अनन्तकाल तक भटकते-भटकते कभी जीव को मनुष्य भव तो नसीब हो जाता है । परन्तु जब तक उसे धर्मश्रवण आदि विशिष्ट सामग्री नहीं मिलती, तब तक केवल मनुष्य भव हितसाधक नहीं हो सकता । अनार्य मनुष्य ही होते हैं पर उनके जीवन का क्या उपयोग है ? 'धर्म' ये दो अक्षर भी जिनके कानों में नहीं पड़ते वे मनुष्य होकर भी क्या आत्महित कर सकते हैं ? अनार्यों को स्वभावतः धर्मश्रवण दुर्लभ होता है, पर आर्य नामधारी सब मनुष्य भी श्रवण के अधिकारी नहीं होते । प्रमाद, लोभ, भय, अहंकार, अज्ञान और मोह आदि अनेक कारणों के वश कुलीन आर्यों को भी धर्मश्रवण नसीब नहीं होता । जिनके अन्तराय कर्म विवर देते हैं, जिनके ज्ञानावरणीयादि कर्म क्षयोपशम को प्राप्त होते हैं वे ही जीव धर्मश्रवण कर सकते हैं । सत्य श्रद्धा धर्मश्रवण करने वाले सभी श्रद्धालु नहीं होते । धर्मतत्त्व को सुन कर भी सभी उस पर विश्वास नहीं लाते । कुछ व्यक्ति कुलधर्म के राग से, कुछ सत्यधर्म के द्वेष से, कुछ तत्त्व को न समझने से और कुछ मतवादियों के बहकावे में आकर श्रवण किये तत्त्व पर श्रद्धा नहीं लाते । सत्य पर सत्यता की और असत्य पर असत्यता की बुद्धि नहीं करते । परिणामतः उनका तत्त्वश्रवण निष्फल जाता है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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