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तीर्थंकर - जीवन
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'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्यं ज्ञानं अनन्तरं ब्रह्म" इत्यादि वाक्यों द्वारा वैदिक ऋषियों ने 'ब्रह्म' अथवा 'अनन्त ब्रह्म' के नाम से जिस तत्त्व का निर्देश किया है, उसीको हम 'निर्वाण' अथवा 'मुक्तावस्था' कहते हैं ।
उक्त विवेचन से प्रभास की निर्वाण विषयक शंका दूर हो गई । वह भी अपने छात्रमण्डल के साथ निर्ग्रथ प्रवचन की दीक्षा ले भगवान् के श्रमणसंघ में सम्मिलित हो गया ।
इस प्रकार मध्यमा के समवसरण ( धर्मसभा) में एक ही दिन में ४४११ ब्राह्मणों ने निर्ग्रथ प्रवचन को स्वीकार कर देवाधिदेव भगवान् महावीर के चरणों में नतमस्तक हो श्रामण्य धर्म को अंगीकार किया ।
भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति आदि प्रमुख ग्यारह विद्वानों को अपने मुख्य शिष्य बनाकर उन्हें 'गणधर ( समुदाय के नायक ) पद से सुशोभित किया और उनकी छात्रमण्डलियों को उन्हीं के शिष्य रहने की आज्ञा दी ।
इन्द्रभूति आदि विद्वानों और उनकी छात्र- मण्डली के अतिरिक्त अनेक नर-नारियों ने भगवान् महावीर का दिव्य उपदेश सुना और संसार से विरक्त होकर श्रमणधर्म अंगीकार किया ।
जिन श्रद्धालु व्यक्तियों ने अपने को श्रमणधर्म के लिए असमर्थ पाया उन्होंने गृहस्थधर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक तथा श्रमणोपासिका रूप में भगवान् के संघ में प्रवेश किया ।
१. आवश्यकटीका में उक्त वाक्य है । तैत्तिरीयोपनिषद् (१८२) में — “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।" और मुण्डकोपनिषद् (११९) में - " तस्मै स होवाच द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चापरा च ॥१४॥ " ये वाक्य मिलते हैं ।
२. ग्यारह में से नौ गणधर तो भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही मुक्त हुए और इन्द्रभूति गौतम ने भी भगवान् के निर्वाण के दिन केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । अन्त में सभी गण दीर्घजीवी सुधर्मा के संरक्षण में ही रहे ।
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