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श्रमण भगवान् महावीर
इस अमृतवाणी से मेतार्य के सब संशय दूर हुए और वह भी अपनी शिष्यमण्डली के साथ भगवान् महावीर के श्रमण परिवार में सम्मिलित हो गए ।
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प्रभास
अन्त में भगवान् महावीर ने विद्वान प्रभास का मनोगत संशय व्यक्त करते हुए कहा-- -क्यों प्रभास ! तुम्हें मोक्ष के विषय में संदेह है ?
प्रभास - जी हाँ । मोक्ष के विषय में मेरे मन में शंका है । मोक्ष का अर्थ यदि कर्मों से मुक्त होना है तो यह असंभव है, क्योंकि जीव और कर्मों का संबंध अनादि है अतः उसे अनन्त भी होना चाहिये --- जो अनादि है वह अनन्त भी है जैसे आत्मा । वेद में भी मोक्ष का कोई विधान भी नहीं है शास्त्र में तो "जरामर्यं वा यदग्निहोत्रम् ।" इत्यादि वचनों से जीवन पर्यन्त के लिये अग्निहोत्र ही विधेयकर्म लिखा है । यदि मोक्ष कोई वास्तविक पदार्थ होता तो उसकी सिद्धि के लिये भी अवश्य कोई अनुष्ठान विहित होता ।
महावीर - अनादि वस्तु अनन्त भी होनी ही चाहिये ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है ।
सुवर्णादि खनिज पदार्थ अनादिकाल से मृत्तिकादि से सम्बद्ध होते हुए भी अग्नि आदि के संयोग से निर्मल हो जाते हैं । इसी प्रकार जीव भी अनादि काल से कर्मफल से सम्बद्ध होते हुए ज्ञान ध्यान आदि उपकरणों की सहायता से मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह हो सकता है कि कर्मकाण्डप्रधान वैदिक ऋचाओं में मोक्ष तथा उसके साधन का विधान न हो परन्तु वेद के ही अन्तिम भाग, उपनिषदों में तो इसके स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं ।
१. यह वाक्य आवश्यकटीका से लिया गया है । यह श्रुतिवाक्य नारायणोपनिषद् (२९३) में इस प्रकार मिलता है - 'एतद्वै जरामर्यमग्निहोत्रं सूत्रम् ।" "तैत्तिरीयारण्यक" (१०--६४) तथा महानारायणोपनिषद् (२५) में यह पाठ है- "जरामर्यं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रम् ।”
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