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तीर्थंकर-जीवन
अचलभ्राता-जी हाँ । एक ओर तो शास्त्र में 'पुरुष एवेदमग्नि सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति' इत्यादि श्रुति से पुरुषाऽद्वैत का प्रतिपादन किया गया है और दूसरी ओर 'पुण्यः पुण्येन पापः पापेन कर्मणा ।'' आदि वेद वाक्य पुण्य पाप का अस्तित्व सिद्ध करते हैं ।
इन विविध वाक्यों से यह निश्चय करना कठिन हो जाता है कि पुण्य-पाप कोई वास्तविक पदार्थ हैं या कल्पना मात्र ?
महावीर-"पुरुष एवेदं" इत्यादि वेद वाक्य अर्थवाद मात्र हैं । इनसे पुरुष का महत्त्व मात्र स्थापित होता है न कि अन्य तत्त्वों का अभाव 'पुण्यः पुण्येन' इत्यादि वाक्य कोई औपचारिक वचन नहीं, सैद्धान्तिक वचन है । पुनर्जन्म और कर्मतत्त्व का अस्तित्व इसमें गभित है जो तर्कसंगत और व्यावहारिक वस्तु है ।
अग्निभूति के सामने जिस प्रकार पुरुषाऽद्वैतवाद का खोखलापन सिद्ध किया था उसी तरह अचलभ्राता के आगे भी पुरुषाद्वैतवाद का निरसन करके भगवान् ने पुण्य-पाप का अस्तित्व सिद्ध कर दिया । इससे अचलभ्राता का संदेह दूर हुआ और निर्ग्रन्थ प्रवचन का सार सुनकर उन्होंने भी अपनी छात्रमंडली के साथ भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । मेतार्य
पंडित मेतार्य को पुनर्जन्म के संबन्ध में शंका थी । 'विज्ञानघन' इत्यादि श्रुतिवाक्यों से उसके दिल में परलोकवाद में संशय हो रहा था । यदि भूतपरिणाम ही चेतन है तो उनके विनाश के साथ ही उसका विनाश भी निश्चित है। इस प्रकार के विचारों से मेतार्य का चित्त भौतिकवाद की तरफ आकृष्ट हो रहा था । भगवान् महावीर ने 'वेदवाक्य' का वास्तविक अर्थ समझाकर भौतिकवाद का खण्डन किया और भूतातिरिक्त आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करके पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।
१. पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति । बृहदारण्यकोनिषद् ५६० ।
पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति । बृहदारण्यकोपनिषद् ६३२ ।
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