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श्रमण भगवान् महावीर
श्रुतिवाक्य यजमान
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एष यज्ञायुधी यजमानोऽञ्जसा स्वर्गलोकं गच्छति ।"" यह को यज्ञ की सहायता से स्वर्गगति की प्राप्ति बताता है । अभूमागमन् ज्योतिरविदाम देवान् । किं नूनमस्मात्तृणवदरातिः
'अपाम सोमममृता
किमु धूतिरमृत
मर्त्यस्य "२ यह वेदवाक्य भी देवलोक का अस्तित्व सूचित करता है । इन परस्पर विरुद्ध वाक्यों से कुछ भी निश्चय नहीं होता ।
महावीर —— महानुभाव मौर्यपुत्र ! "मायोपमान्" इत्यादि श्रुतिवाक्य का वास्तविक अर्थ तुम समझ नहीं पाए । इसीसे तुम शंकाकुल हो रहे हो । वस्तुतः उक्त श्रुति देवों के अस्तित्व का निषेध नहीं करती बल्कि उनकी अनित्यता सूचित करती है । देव जो कल्पस्थायी दीर्घायुषी होते हैं वे भी आखिर स्वप्न की तरह नामशेष हो जाते हैं, तो मनुष्यादि अल्पजीवियों का तो कहना ही क्या है ? इस भाव को प्रतिपादन करने के लिये पूर्वोक्त ऋषिवाक्य प्रयुक्त हुआ है, न कि देवत्व का अभाव बताने के लिये ।
मौर्यपुत्र — 'देवलोक' नामक एक नयी दुनिया की कल्पना करने के बदले यही क्यों न मान लिया जाय कि विशिष्ट स्थिति - संपन्न मनुष्य ही 'देव' है ?
"
महावीर -- मनुष्यगति वह गति है जहाँ जन्म पाए हुए प्राणी सुखदुःख मिश्रित जीवन व्यतीत करते हैं । मनुष्य लोक में ऐसा कौन सा प्राणी है जो दुःख से अलिप्त केवल सुख में ही जीवन गुजारता हो ? गर्भावास का दुःख किस मनुष्य ने नहीं भोगा ? शारीरिक और मानसिक पीड़ाओं ने किस मनुष्य को अछूता छोड़ा है ? इस मानव संसार में ऐसा कौन मनुष्य है जो सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण करके मरा हो ? महानुभाव, मानव संसार
किया
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१. यह वाक्य हमें वैदिक ग्रन्थों में नहीं मिला। यहाँ आवश्यकटीका में से उद्धृत
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२. यह श्रुति आवश्यकटीका के अनुसार है । यह श्रुतिवाक्य 'ऋग्वेदसंहिता' (८४८-३) तथा 'अथर्वशिर उपनिषद् ।' (३) में इस प्रकार मिलता है
अपाम सोमममृता अभूमागमन् ज्योतिरविदाम देवान् किमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मर्त्ये च ॥"
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