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________________ तीर्थंकर-जीवन ६९ की इस अपूर्ण सुख सामग्री को देखकर मानना होगा कि मनुष्य लोक केवल पुण्य-फल भोगने का स्थान नहीं, अतः केवल पुण्य का फल भोगने के लिए कोई भिन्न स्थान अवश्य होना चाहिये जहाँ पर उत्पन्न होने वाले जीव दीर्घकाल पर्यन्त केवल सुख ही सुख भोगते हों । यही स्थान 'देवलोक' हैं और इनमें उत्पन्न होकर हजारों, लाखों, करोड़ो और अरबो खरबों वर्षों से भी अधिक समय तक पुण्य-कर्मों के फल भोगने वाले 'देव' । हाँ, उत्तम प्रकृति के गुणी मनुष्यों को 'उपचार' से 'देव' कह सकते है, पर उत्पत्ति से देव तो वही कहलायेंगे जो स्वर्गलोक में उत्पन्न होकर मनुष्यों से अनेकगुनी शक्ति और विलक्षण दिव्य कान्ति को धारण करनेवाले होंगे । ___ भगवान् महावीर के उक्त खुलासे से मौर्यपुत्र की शंका निवृत्ति हो गई और निग्रंथ प्रवचन का श्रवण करने के उपरान्त वे अपने छात्रमंडल के साथ भगवान् के पास दीक्षित हो गए । अकम्पिक अब भगवान् अकम्पिक का मनोगत संदेह व्यक्त करते हुए बोलेक्यों अकम्पिक ! तुम्हारे चित्त में नरक के अस्तित्व के बारे में संदेह है ? अकम्पिक-जी हाँ ! यद्यपि दार्शनिक लोग 'नरक' नामक एक अगम्य स्थान की कल्पना करते हैं पर मेरी समझ में तो यह कोरी कल्पना ही है, प्रामाणिक वस्तु नहीं । जिसे विद्वान् लोग 'नरक' कहते हैं, मेरे विचार से उसका तात्पर्य मनुष्य जीवन की एक निकृष्टतम दशा से है । महावीर-मनुष्य की निकृष्ट दशा को नरक मानने से कर्मसिद्धान्त का निर्वाह नहीं हो सकता । मनुष्य कितना भी दु:खी क्यों न हो, फिर भी उसमें सुख का अंश रहता ही है । जो जीव जीवन पर्यन्त हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह में लीन रहते हैं, हजारों के प्राण हरण करते हैं, सैंकड़ों असत्यभाषण करते हैं, लाखों को लूटते हैं, असंख्य अनाचार करते हैं और दुनिया भर के राज्य और परिग्रह इकट्ठा कर उन्हीं प्रवृत्तियों में अपनी जीवन-यात्रा समाप्त करते हैं उनके लिये क्या निकृष्ट मनुष्यगति अथवा कोटपतंगादि के जन्म ही पर्याप्त होंगे ? ऐसे क्रूर कर्मकारियों का छुटकारा मनुष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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