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________________ तीर्थंकर - जीवन ६७ I भोगता रहता है । जिस समय इसे गुरु द्वारा अथवा स्वयं मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है तब यह मुक्ति के लिये उद्यम करने लगता है और कर्मबन्धनों को क्षय करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । महानुभाव मंडिक, हमारे इस कथन का नीचे लिखे वेदवाक्य से भी समर्थन होता है— " न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीरं वा वसन्तं प्रियाऽप्रिये न स्पृशतः ।" " भगवान् महावीर के मुखारविन्दु से बन्धमोक्ष की व्याख्या को सुनकर मंडिक का अज्ञानान्धकार नष्ट हो गया और वह निर्ग्रन्थ प्रवचन का सार सुनकर सपरिवार उनके चरणों में प्रव्रजित हो गया । मौर्यपुत्र अब भगवान् महावीर ने मौर्यपुत्र की शंका को प्रकट करते हुए कहा- मौर्यपुत्र ! क्या तुम्हें देवों के अस्तित्व में शंका है ? 'मौर्यपुत्र — जी हाँ, 'देव' नामधारी प्राणियों की कोई स्वतंत्र दुनिया है अथवा विशिष्ट स्थिति - संपन्न मनुष्य ही 'देव' कहलाते हैं, इस विषय में मैं संदेहशील हूँ । इस सम्बन्ध में शास्त्र की भी एकवाक्यता नहीं । " को जानाति मायोपमान् गीर्वाणानिन्द्रियमवरुणकुवेरादीन्" इत्यादि शास्त्रवाक्य इन्द्र, यम, वरुण, कुवेरादि देवों को स्वप्नोपम (स्वप्नतुल्य-असत्) बताते हैं और "स १२ १. यह पाठ छान्दोग्योनिषद् (४४५) में कुछ फेरफार के साथ मिलता है--न ह वै सशरीरस्य सतः प्रियाऽप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वा वसन्तं न प्रियाऽप्रिये स्पृशतः ॥१॥ अर्थ —'जब तक आत्मा शरीरधारी है इसके सुख - दुःखों का अन्त नहीं है और शरीर रहित होनेपर सुख-दु:ख इसका स्पर्श नहीं करते ।' २. यह वाक्य किस वैदिक ग्रन्थ का है इसका पता नहीं चला । लेखक ने यह पाठ आवश्यकटीका में से उद्धृत किया है । Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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