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दृष्टि से ये असर आत्मा में नहीं, अन्तःकरण में होते है ।
महावीर — तब आत्मा का शरीर और अन्तःकरण के साथ ऐसा कोई गाढ़ सम्बन्ध होना चाहिये जिससे वह उनमें अपनापन मान लेने की भूल करता होगा ।
श्रमण भगवान् महावीर
मंडिक — हाँ, ऐसा ही है । दूध में रहा हुआ घी दूध से भिन्न होते हुए भी भिन्न नहीं दीखता । ऐसे ही आत्मा शरीर से भिन्न होते हुए भी घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण वह अपने को भिन्न नहीं समझती और इसी अभेदज्ञान के वश अपने में बुद्धि द्वारा पड़ते हुए शारीरिक सुख-दुःखों के प्रतिबिंबों को वह अपना सुख-दुःख मानकर अपने को सुखी - दुःखी माना करता है ।
स्फटिक स्वयं उज्ज्वल होता है, फिर भी सन्निधि के कारण, लाल, नीला, पीला, काला अने रूपों में दीखता है । यही दशा आत्मा की भी है । स्वयं स्वच्छ स्फटिक समान निर्मल होते हुए भी उपाधिवश वह अनेक रूपों में दीखती है ।
महावीर — आत्मा का शरीर अथवा अन्तःकरण के साथ जो घनिष्ठ सम्बन्ध है उसी को हम 'बन्ध' कहते हैं । आत्मा स्व स्वरूपसे उज्ज्वल है, इसमें कोई विरोध नहीं, पर जब तक वह सकर्मक है, शरीरधारी है, तब तक कर्मफल से मलिन है । इस मलिन प्रकृति के कारण नये-नये कर्म बाँधती रहती है और उन कर्मों के अनुसार ऊँच-नीच गतियों में भटकती है, यही इसका संसार - भ्रमण है ।
सुख-दुःख की उत्पत्ति अन्तःकरण में होती है और अन्त:करण ही उसका अनुभव करता है, यह मान्यता भी तर्कसंगत नहीं है । ज्ञान चेतन का धर्म है, जड़ का नहीं । अन्तःकरण जड़ पदार्थ है । उसे सुख-दुःख का ज्ञान कभी नहीं हो सकता । अनुभव का होना तो निर्विवाद है, अत: सुखदुःख का अनुभवकर्ता और वचन द्वारा व्यक्तकर्त्ता तत्त्व अन्त:करण से भिन्न है । इसी तत्त्व को हम आत्मा कहते हैं ।
जब तक आत्मा को संसार से मुक्त होने का साधन प्राप्त नहीं होता तब तक वह चातुर्गतिक संसार में भटकता रहता है और अपने कर्मों का फल
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