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तीर्थंकर-जीवन
६५ आप ही कहिये, जो विगुण (सत्त्व-रज-तमोगुणातीत), बाह्य (शारीरिक) तथा आभ्यन्तर (मानसिक) सुख-दुःखों के प्रभावों से परे है, वह किस कारण से कर्म-बद्ध होगा? और जिसका बन्धन ही नहीं, उसके छूटने की बात ही कहाँ ? इस प्रकार जो अबद्ध होगा वह संसार-भ्रमण भी किस कारण करेगा ?
महावीर-उक्त श्रुतिवाक्य में जो आत्मा का स्वरूप-वर्णन है वह केवल सिद्ध आत्माओं को ही लागू होता है, संसारी आत्माओं को नहीं ।
मंडिक-सिद्ध और संसारी आत्माओं में क्या भिन्नता है ?
महावीर---यों तो आत्मस्वरूप से सभी आत्मायें एक सी हैं परन्तु उपाधिभेद से उनमें भिन्नता मानी गई है । जो आत्मायें तप-ध्यान-योगानुष्ठान से सम्पूर्ण कर्मांशों से मुक्त होकर स्वस्वरूप को पा लेती हैं उनको हम 'सिद्ध' कहते हैं । और जो कर्मयुक्त आत्मायें हैं, शारीरिक मानसिक और वाचिक प्रवृत्तियों द्वारा भले-बुरे कर्म कर नाना गतियों में भ्रमण किया करती हैं, वे संसारी आत्मायें हैं । उक्त वेदवाक्य में जो विभु आत्मा का निरूपण है वह कर्ममुक्त सिद्धात्माओं को ही लागू होता है क्योंकि उक्त सभी विशेषतायें उन्हीं में विद्यमान होती हैं, संसारी जीवों में नहीं ।
मंडिक—'सिद्ध'और 'संसारी' दो तरह की आत्माओं की कल्पना करने के बदल सभी आत्माओं को कर्ममुक्त सिद्धस्वरूप मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है ?
महावीर-संसारी आत्माओं कर्मरहित (तटस्थ) मान लेने पर जीवों में जो कर्मजन्य सुख-दुःख के अनुभव का व्यवहार होता है वह निराधार सिद्ध होगा । 'मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ' इत्यादि व्यवहार का आधार जीवों के कर्मफल माने जाते हैं । यदि हम सभी जीवों को कर्मरहित मान लेंगे तो इस सुख-दुःख का कारण क्या माना जायगा ?
मंडिक-आत्मा को बुद्धि और शरीर से अपना जुदापन ज्ञात न होने से बुद्धि में होनेवाले सुख-दुःखजन्य असरों को वह अपने में मान लेता है और 'मैं सुखी, मैं दुःखी' इत्यादि वचनों से उन्हें प्रकट करता है, पर परमार्थ
श्रमण-५
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