________________
६४
श्रमण भगवान् महावीर मनुष्यशरीर भी उत्पन्न हो सकता । महाशय सुधर्मन् ! प्रत्येक जन्तु का जीव जुदा
और शरीर जुदा होता है। पूर्व शरीर उत्तर शरीर का कारण हो सकता है पर उत्तर भव का नहीं । भवप्राप्ति का कारण जीवों के शुभ-अशुभ कर्म होते हैं जो जीव जिस प्रकार के भलेबुरे कर्मों से अपनी आत्मा को बाँधता है, वह उसी प्रकार की भलीबुरी गतियों में जाकर उत्पन्न होता है । इसमें उसका पूर्वभविक शरीर कुछ असर नहीं कर सकता । इस भव का मनुष्य शारीरिक मानसिक और वाचिक अशुभ प्रवृत्तियों से अशुभ कर्म बाँध कर नारक और तिर्यंच हो सकता है और शुभ प्रवृत्तियों से मनुष्य और देव भी हो सकता है। इसी तरह इस भव का पशु अशुभ कर्मों से फिर तिर्यंच और नारक हो सकता है और वही तिर्यंच शुभ कर्मों के प्रताप से मनुष्य और देव तक हो सकता है । इससे तुम समझ सकते हो कि प्राणियों का पुनर्जन्म उनके कर्मों पर आधार रखता है शरीर पर नहीं ।
भगवान् महावीर के इस स्पष्टीकरण से सुधर्मा का संदेह निवृत्त हो गया और निर्ग्रन्थ-प्रवचन का सार सुनने के बाद वे अपने छात्रमंडल के साथ श्रमण-धर्म की दीक्षा ले भगवान् महावीर के शिष्य हो गये । मंडिक
सुधर्मा के बाद मंडिक का मानसिक संदेह व्यक्त करते हुए महावीर बोले-आर्य मंडिक ! क्या तुम्हें आत्मा के बन्ध-मोक्ष के विषय में शंका है।
मंडिक-जी हाँ । मेरी ऐसी मान्यता है कि 'आत्मा' एक स्वच्छ स्फटिक सा पदार्थ है । इसका कर्मों से बन्ध-मोक्ष तथा नये-नये रूपों में संसार में भटकना बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता है । शास्त्र में भी आत्मा को त्रिगुणातीत, अबद्ध और विभु बताया है। शास्त्र में लिखा है-"स एष विगुणो विभुर्न बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा, न वा एष बाह्यमाभ्यन्तरं वा वेद ।"
१. इस श्रुति का भाव सांख्यकारिका नं० ६२ के भाव से मिलता है । तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ सांख्यकारिका नं० ६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org