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तीर्थंकर-जीवन सुधर्मा की दीक्षा
तत्पश्चात् महावीर ने सुधर्मा को सम्बोधित करते हुए कहा-सुधर्मन् ! क्या तुम यह मानते हो कि सब प्राणी मर कर अपनी ही योनि में उत्पन्न होते हैं ?
__सुधर्मा--'जी हाँ । वेद वाक्य भी मेरे इन विचारों के समर्थक हैं । शास्त्र में कहा है-'पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्' पुरुष पुरुषपन पाता है और पशु पशुपन ।'
महावीर-'इसके विरोधी वाक्य भी मिलते हैं । क्या यह तुमको मालूम है ?'
सुधर्मा-जी हाँ । 'शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते ।' इस वाक्य से मनुष्य का भवान्तर में सियाल होना भी लिखा है । इन परस्पर विरोधी वाक्यों से यद्यपि इस विषय में कुछ निश्चय नहीं होता । पर जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, भवान्तर में प्राणिमात्र का सादृश्य प्रतिपादक वेदवाक्य ही युक्तिसंगत मालूम होता है । क्योंकि यह एक अटल नियम है कि कार्य हमेशा कारणानुरूप ही होता है । गेहूँ से गेहूँ की ही उत्पत्ति होती है, जौ की नहीं । इसी तरह मनुष्य आदि प्राणी मर कर फिर मनुष्य आदि ही होने चाहिये ।
महावीर-महानुभाव ! तुमने कार्य कारण की बात कही सो तो ठीक है। हम भी यही मानते हैं कि कारणानुरूप कार्य होता है। इसीलिये गेहूँ से गेहूँ और जौ से जौ की ही उत्पत्ति होती है पर इस कार्यकारण के नियम से ऐहिक सादृश्य सिद्ध हो सकता है जन्मान्तर का नहीं । गेहूँ के दाने से नये गेहुँओं की उत्पत्ति होती है यह बात सत्य है परन्तु इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि उसी कारणरूप गेहूँ के जीव ने उससे उत्पन्न होनेवाले गेहूँ के दानों में जन्म लिया है। कारण और कार्यरूप गेहूँ के दानों में केवल शारीरिक कार्यकारण भाव होता है, आत्मिक नहीं । इसी प्रकार मनुष्य तथा तिर्यंच आदि में भी शारीरिक कार्यकारण भाव होता है। मनुष्य के मनुष्य-देहधारी संतान होती है और पशु के पशु-देहधारी । यदि यह नियम न होता तो मनुष्य से पशु और पशु से
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