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________________ ६२ श्रमण भगवान् महावीर आर्यव्यक्त, क्या तुम्हें ब्रह्म के सिवा अन्य पदार्थों की वास्तविकता के विषय में शंका है ? व्यक्त-जी हाँ । वेद में "स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेयः" इत्यादि वचनों से सब कुछ स्वप्नतुल्य बताया है। केवल ब्रह्मआत्मा को ही सत् कहा है । वेद में ही "पृथिवी देवता, आपो देवता" इत्यादि वाक्यों से पृथिव्यादि भूतों की सत्ता भी प्रतिपादित की है। इस स्थिति में यह निश्चय करना अति कठिन है कि जगत् को किस रूप में माना जाय, सत् या असत् ? महावीर-महानुभाव ! "स्वप्नोपमं वै" इत्यादि वेद वाक्य को तुमने यथार्थरूप में नहीं समझा । यह वेद-पद कोई विधिवाक्य नहीं है जैसा कि तुम समझ रहे हो । सर्व स्वप्न तुल्य होने का अर्थ यह नहीं कि ब्रह्म के अतिरिक्त कोई सत् पदार्थ ही नहीं । उक्त उपदेशवाक्य है और वह अध्यात्मचिन्ता का उपदेश करता हुआ सूचित करता है कि धन-यौवन, पुत्र कलत्रादि पदार्थ जिन पर मुग्ध होकर यह संसारी जीव अपना हितमार्ग चूक रहा है, सांसारिक सुख के प्रलोभनों में फँस कर आत्महित में प्रमाद कर रहा है, वह पदार्थ वस्तुतः नाशशील है । क्या सामान्य मनुष्य और क्या देवेन्द्र चक्रवर्ती सब आयुष्य की सांकलों में बँधे हुए हैं । जब वे सांकलें टूटेंगी, जब आयुष्य की डोरी पूरी होगी तब भाडे के घर की तरह इस देह को छोड़ कर स्वकर्मानुसार देहान्तर धारण करेंगे, और उस हालत में यहाँ के संबन्ध और संबन्धी केवल नामशेष हो जायँगे । अतः आत्मार्थी जन का कर्तव्य है कि वह इन सांसारिक क्षणिक संबन्धों, क्षणिक सुखों में न फंस कर आत्महित की चिन्ता करें । भगवान् ने विस्तारपूर्वक जड़ चेतन की चर्चा करके दोनों के स्वरूप का प्रतिपादन किया । आर्यव्यक्त की सब शंकाएँ दूर हुईं और उसने भी छात्रमंडली के साथ निग्रंथ- श्रमण-धर्म की प्रव्रज्या ग्रहण करके अपने को धन्य माना । १-२. ये वाक्य किन वैदिक ग्रन्थों के हैं इसका कुछ पता नहीं लगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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