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तीर्थंकर-जीवन कोई नियोजक चेतन होगा तभी ये संसार की विचित्रता का कारण हो सकेंगे । अतएव भूतों से विलक्षण 'चेतन' मानना जरूरी है ।
आत्मा का अस्तित्व मान लेने पर भी संसार की विविधता सिद्ध नहीं हो सकती जब तक कि चेतन और जड़ के बीच में कोई विशिष्ट संबंध न माना जाए क्योंकि जड़ से निर्लेप रहता हुआ चेतन जड़ पदार्थ का कोई नियमन अथवा उपयोग नहीं कर सकता । मिट्टी का स्पर्श न करनेवाला कुम्हार मिट्टी के बरतन नहीं बना सकता ।
वायुभूति-तब क्या कुम्हार की तरह चेतन भी जड़ पदार्थों से इस जगत् की रचना करता है ?
महावीर-मेरा अभिप्राय यह नहीं है । कुम्हार की तरह कोई भी चेतनशक्ति इस संसार की रचना नहीं करती । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि इस जगत में चेतन और जड़ दो शक्तियाँ काम कर रही हैं । इन दो शक्तियों के बीच वह संबंध है जो विजातीय दो पदार्थों के बीच हो सकता है । चेतन, जिसे हम आत्मा कहते हैं और जड़, जिसे हम कर्म कहते हैं, अनादि काल से दूध और घी की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं । दूध को हम देखते हैं पर घृत का अनुमानमात्र कर सकते हैं । इस तरह सचेष्ट शरीर को देखते हैं और आत्मा का अनुमान करते हैं ।
चेतन से लिप्त कर्माणुओं से संसार में यह विचित्रता उत्पन्न होती है । जो चेतन शुभ कर्मों से लिप्त होता है वह संसार में अच्छी स्थिति पाता है और जो अशुभ कर्मदलों से संबद्ध होता है वह बुरी स्थिति को प्राप्त होता है । इस प्रकार संसार के वैचित्र्य का कारण संसारी जीव और उनके शुभअशुभ कर्म हैं, केवल भूतों का स्वभाव नहीं ।
अब वायुभूति ने भगवान् महावीर का सिद्धान्त स्वीकार कर लिया और सपरिवार श्रमणधर्म की दीक्षा ले भगवान् के शिष्य हो गये । आर्यव्यक्त की दीक्षा
अब भगवान् महावीर ने आर्यव्यक्त को संबोधित किया और बोले
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