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केसरविजयजी ने कस्तूर को (देवनागरी लिपि) 'क' सिखाना प्रारंभ किया ।
मुनिश्री विहार करके जालोर पधारें । कस्तूरचन्द ने पंचप्रतिक्रमण, चाणक्य नीतिशास्त्र, अमरकोश इत्यादि का अध्ययन किया । राजपूत गुलाब और ब्राह्मण कस्तूर दोनों की जोड़ी जम गयी । तेज गति से दोनों का अध्ययन चलने लगा । दोनों के दिल वैराग्य के रंग में रंगे जाने लगे । कस्तूरचन्द ने तो छोटी वय मे इस संसार का अनुभव प्राप्त कर लिया था ।
अब दोनों का मन जैन दीक्षा के लिए लालायित हो चुका था ।
वि० सं० १९६६ के वैशाख सुद ३ के दिन जालोर में दोनों मुमुक्षुओं को भागवती दीक्षा प्रदान की गयी । गुलाबचन्द का नाम रखा गया मुनि आनंदविजय जबकि कस्तूरचन्द का नाम रखा गया मुनि कल्याण विजय ।
दीक्षा के पश्चात् तखतगढ की ओर विचरण हुआ । वहाँ जोधपुर के पंडित शास्त्री नित्यानंदजी के पास दोनों नूतन मूनिओं का अध्ययन आगे गति करने लगा ।
सारस्वत व्याकरण, पंचतंत्र, वाग्भटालंकार वगैरह अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया ।
सादडी में पं० श्री सिद्धिविजयजी म. (पू. बापजी म.) के वरद हस्त से दोनों मुनिओं की उपस्थापना-बहददीक्षा संपन्न हुई । मुनिश्री आनंदविजयजी का नामांतर करके मुनि श्री सौभाग्यविजयजी रखा गया । मुनिश्री कल्याणविजयजी का नाम वही रहा ।।
वापस तखतगढ जाने पर पंडितजी के पास अध्ययन की गति बढ़ी । अनेक ग्रंथ उन्होंने कंठस्थ कर लिए ।
वि० सं० १९६६ का मेहसाणा में पूज्य पंन्यास श्री सिद्धिविजयजी महाराज की निश्रा में हुआ । यशोविजय जी जैन पाठशाला में सिद्धहेम बृहद्वृत्ति, न्यायकारिकावली का अध्ययन हुआ । सं० १९६७ का चातुर्मास भरुच में हुआ । वहाँ से सूरत, खंभात होकर पालीताना में १९६८ का चातुर्मास हुआ । तत्पश्चात् वे मारवाड में आये ।
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