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एक वर्ष के पश्चात् उसने अपने छोटे भाई हेमचन्द्र को भी बुला लिया और खुद की जगह पर उसे नौकरी में बिठाकर स्वयं हंसराज सेठ के वहाँ नौकरी करने लगा । सेठ के वहाँ छोटे छोटे पाँच-छह बरस के बच्चों को पढ़ाई करते देखा, उन्हें बाराखड़ी लिखते हुए, अ-आ, क- का वगैरह लिखते हुए देखकर कस्तूर को अपनी अनपढ़ स्थिति पर दया आने लगी । घर का काम करने से जब भी फुरसत मिलती तो कस्तूर बारखड़ी सिखने लगता । मारवाडी अक्षरों का कुछ तो परिचय उसने प्राप्त कर ही लिया ।
किशोर कस्तूर के दिल में पढ़ने की, अध्ययन करने की बड़ी चाहना थी, पर उसे पढ़ाये कौन ?
उन्हीं दिनों मुनिराज श्री केसरविजयजी महाराज का आगमन देलंदर गाँव में हुआ । खरतरगच्छ के साध्वीजी पुण्यश्रीजी आदि भी पधारीं । उनके साथ एक पंडित जी भी थे । वे साध्वीजी को लघुसिद्धांत कौमुदी, अमरकोश इत्यादि पढ़ा रहे थे ।
मुमुक्षु गुलाबचन्दभाई भी मुनिश्री केसरविजयजी महाराज के पास संयमजीवन की तालीम ले रहे थे । गुलाबचन्दभाई भोजन के लिए सेठ श्री हंसराजजी के वहाँ आया करते थे । कस्तूर भी उनके साथ उपाश्रय में अक्सर जाता-आता था । रात को साधु महाराज के पैर दबाता था । सेवा करता था । एक दिन कस्तूरचन्द ने डरते डरते मुनि श्री केसविजयजी से विनति की :
'गुरुदेव, मुझे भी पढ़ना है, इस गुलाब की तरह आप मुझे भी अपने साथ रख लो न ?'
मुनिराज ने कहा : 'तेरे घर के लोग और सेठ यदि इजाजत देते है तो मैं रख सकता हूँ ।'
कस्तूर की ज्ञान पिपासा इतनी तो तीव्र थी कि उसे आखिरकर इजाज़त मिल ही गयी ।
वि० सं० १९६२ वैशाख सुद ३ की मंगल बेला में मुनिश्री
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