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श्रमण भगवान् महावीर स्वीकार कर लिया । भगवान् महावीर का उपदेश सुन कर अग्निभूति ने प्रतिबोध पाया और अपने छात्रमण्डल के साथ भगवान् के चरणों में श्रामण्य अंगीकार किया । शरीरातिरिक्त आत्मा की सिद्धि तथा वायुभूति की दीक्षा
अग्निभूति की दीक्षा से मध्यमा में आए हुए सब ब्राह्मण विद्वानों के गर्व चूर्ण हो गये । अब उनको विश्वास हो गया कि महावीर सर्वज्ञ है । फिर भी वायुभूति गौतम और अन्य विद्वानों ने भगवान् महावीर से भेंट करने और उनके ज्ञान-वैराग्य की परीक्षा करने का निश्चय किया और वे अपने अपने छात्रमण्डलों के साथ महासेन उद्यान की ओर चल पड़े । सब के आगे वायुभूति था । वायुभूति समवसरण में पहुँचा तो भगवान् के अलौकिक तेज से उसके नेत्र चौंधिया गए । वह अपना प्रश्न (पूछने को ही था कि) भगवान् ने उसकी मानसिक शङ्का को व्यक्त करते हुए कहा-वायुभूति ! क्या तुम्हें शरीर से भिन्न जीव की सत्ता के विषय में शंका है ?
वायुभूति-जी हाँ । मैं ऐसा समझता हूँ कि शरीर से भिन्न जीव की कोई सत्ता नहीं । क्योंकि 'विज्ञानघन' इत्यादि श्रुतिवाक्य भी यही प्रतिपादन करता है कि यह ज्ञानात्मक 'आत्मपदार्थ' इन भूतों से प्रकट होता है और इन्हीं में विलीन हो जाता है । पुनर्जन्म जैसा कोई भाव नहीं है ।
महावीर-और आत्मा का अस्तित्व भी वेद से सिद्ध होता है । "सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण" इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा के अस्तित्व को भी सिद्ध करते हैं ।
१. संपूर्ण श्रुतिवाक्य आवश्यकटीका में इस प्रकार है"सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यम् । ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यन्ति धीरा यतयः संयतात्मानः ॥" मुण्डकोपनिषद् (१४०) में यह पाठ इस प्रकार है"सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः" ।
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