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तीर्थंकर-जीवन
भूतसमुदायात्मक शरीर को 'आत्मा' मानने से काम नहीं चलेगा क्योंकि कार्य कारणानुरूप होता है । तिल के प्रत्येक दाने में तेल होता है तभी उसके समुदाय से तेल निकलता है । रेती के कणों में तेल न होने से उसके समुदाय से भी वह कभी प्रकट नहीं होता । भूत जड़ स्वरूप है। उनका समुदाय भी जड़ ही होगा । उसमें चैतन्य कभी प्रकट नहीं हो सकता ।
वायुभूति-आपका 'कारणानुरूप कार्य' वाला नियम अव्यापक है । मदिरा के प्रत्येक अंग में मादकता नहीं होती, फिर भी उसके सम्मिश्रण से उत्पन्न हुई मदिरा में वह अवश्य होती है। इससे सिद्ध हुआ कि 'कारणानुरूप ही कार्य हो' ऐसा ऐकान्तिक नियम नहीं है ।
महावीर-प्रिय वायुभूति ! मदिरा के दृष्टान्त से 'कारणानुरूप कार्य का नियम' विघटित नहीं होता । मदिरा के प्रत्येक अंग मे मादकता नहीं होती, यह कथन से वास्तविकता से दूर है । मदिरा के प्रत्येक अंग में अनभिव्यक्त अवस्था में मादकता है । तभी उनके संधान में वह खमीर रुप से अभिव्यक्त होती है । यदि ऐसा न हो तो दूसरे पदार्थों के संधान में वह क्यों नहीं अभिव्यक्त होती । अमुक पदार्थों में ही वह उत्पन्न होती है और अमुक में नहीं, इससे भी क्या सिद्ध नहीं होता कि वह शक्ति उन पदार्थों में पहले ही से सन्निहित रहती है जो कारण पाकर प्रकट होती है ?
वायुभूति-अच्छा यदि यह मान भी लें कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं होती तो भी भूतों से अतिरिक्त आत्मा के अस्तित्व में प्रमाण क्या है ?
महावीर-ज्ञानी मनुष्यों के लिये तो आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के लिए किसी प्रमाण की जरूरत ही नहीं है । वे इसे हस्तामलकवत् साक्षात् देखते हैं । चर्म-नेत्रवालों के लिये आत्मा अवश्य एक पहेली है । उनके लिये आत्मा गूढातिगूढ और सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थ है जिसे वे अनुमान से जान सकते हैं।
मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष, लता आदि जीवधारी पदार्थों की प्रवृत्तियों का निरीक्षण कीजिए । सब अपने अनुकूल वेदनीय की ओर
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