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तीर्थंकर - जीवन
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और धर्म के अवतार । दूसरा कहता- अजी, कुछ करामात जानते होंगे । अन्यथा इन्द्रभूति जैसे विद्वान का इस प्रकार मोहित हो कर अपने छात्रसंघ के साथ उनका शिष्य बन जाना संभव नहीं ।
उनका छोटा भाई अग्निभूति उनकी विद्वत्ता का इतना कायल था कि वह यह तो मानने को तैयार हो सकता था कि सूर्य का उदय पश्चिम में हो परन्तु यह नहीं कि इन्द्रभूति किसी से हार जाए और उसका शिष्य हो जाए । वह कुछ क्रोध, कुछ आश्चर्य और कुछ अभिमान के भावों के साथ अपने छात्रमंडल सहित महासेन उद्यान की ओर चल पड़ा । उसे पूर्ण विश्वास था कि किसी भी तरह वह महावीर को परास्त करके बड़े भाई इन्द्रभूति को वापस ले आएगा |
अग्निभूति की प्रव्रज्या
अग्निभूति जब नगर से निकला तो उसके शरीर में बड़ी तेजी थी पर ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ने लगा त्यों-त्यों उसका शरीर भारी होने लगा । जब वह समवसरण के सोपानमार्ग तक पहुँचा तो उसके पैरों ने जवाब दे दिया । उसके मन का जोश बिलकुल ठंडा पड़ गया । वह सोचने लगाक्या सचमुच ये सर्वज्ञ ही हैं, क्या इसी कारण इन्द्रभूति ने अपनी हार मान ली है ? यदि यही बात है तो मैं यहीं से एक प्रश्न पूछूंगा । यदि मुझे ठीक उत्तर मिल जाएगा तो मैं भी इन्हें सर्वज्ञ मान लूँगा । अग्निभूति द्वार पर ही खड़े थे कि महावीर ने उन्हें संबोधित किया-प्रिय अग्निभूति, क्या तुम्हें कर्म के अस्तित्व के विषय में शंका है ?
अग्निभूति - हाँ महाराज, कर्म के अस्तित्व को मैं संदेह की दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि “पुरुष एवेदं अग्रं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यं"" इत्यादि श्रुति
१. आवश्यकटीका में संपूर्ण श्रुतिवाक्य इस प्रकार है
" पुरुष एवेदं ग्निं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति यदेजति यन्नैजति यद्दूरे यदु अन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यदु सर्वस्याऽस्य बाह्यतः ||" 'वाजसनेयीसंहिता' (४०-५) में भी उपर्युक्त वाक्य ही मिलता है । ‘ईशावास्योपनिषद्' में तदेजति तन्नैजति, तद्दूरे तदन्तिके । तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य
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