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तीर्थंकर - जीवन
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संज्ञास्ति ।" इत्यादि वेदवाक्य भी इसी बात का समर्थन करते हैं कि भूत समुदाय से चेतन पदार्थ उत्पन्न होता है और उसीमें लीन हो जाता है; परलोक की कोई संज्ञा नहीं । भूतसमुदाय से ही विज्ञानमय आत्मा की उत्पत्ति का अर्थ तो यही है कि भूतसमुदाय के अतिरिक्त पुरुष का अस्तित्व ही नहीं । महावीर - और यह भी तो तुम जानते हो कि वेद से पुरुष का अस्तित्व भी सिद्ध होता है ।
इन्द्रभूति — जी हाँ, " स वै अयमात्मा ज्ञानमयः "२ इत्यादि श्रुतिवाक्य आत्मा का अस्तित्व भी बता रहे हैं । इनसे शंका होना स्वाभाविक ही है कि 'विज्ञानघन' इत्यादि श्रुति वाक्य को प्रमाण मानकर भूतशक्ति को ही आत्मा माना जाए अथवा आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व माना जाए ।
महावीर — महानुभाव इन्द्रभूति ! 'विज्ञानघन' इत्यादि पदों का जैसा तुम अर्थ समझ रहे हो वास्तव में वैसा नहीं है । अगर इस श्रुतिवाक्य का वास्तविक अर्थ समझ लिया होता तो तुम्हें कोई शंका ही न होती ।
इन्द्रभूति - क्या इसका वास्तविक अर्थ कुछ और है ?
महावीर — हाँ ! 'विज्ञानघन' इस श्रुति का वास्तविक अर्थ और ही है । तुम 'विज्ञानघन' का अर्थ पृथिव्यादि भूतसमुदाय से उत्पन्न 'चेतनापिण्ड' ऐसा करते हो पर वस्तुतः 'विज्ञानघन' का तात्पर्य विविधज्ञानपर्यायों से है । आत्मा में प्रतिक्षण नवीन ज्ञानपर्यायों का आविर्भाव तथा पूर्वकालीन ज्ञानपर्यायों का तिरोभाव होता रहता है । जब एक पुरुष घट को देखता है और उसका चिन्तन करता है तो उस समय उसकी आत्मा में घटविषयक ज्ञानोपयोग उत्पन्न होता है जिसे हम घटविषयक 'ज्ञानपर्याय' कहते हैं । जब वही पुरुष घट
१. यह वेदवाक्य आवश्यकटीका में से लिया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में यह वाक्य इस रूप में मिलता है "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्तीत्यरे ब्रवीति होवाच याज्ञवल्क्यः ।" बृहदारण्यकोपनिषद् १२-५३८ । २. आवश्यकटीका में उद्धृत यह वाक्य 'बृहदारण्यकोपनिषद्' (४-४--५) में मिलता है और इससे मिलता जुलता 'य एष विज्ञानमयः पुरुषः ' वाक्य बृहदारण्यक ( पृ० ५२१) में उपलब्ध होता है ।
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