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श्रमण भगवान् महावीर ये सभी कुलीन ब्राह्मण सोमिलार्य के आमंत्रण से अपने-अपने छात्र परिवार के साथ मध्यमा आये थे । प्रत्येक को किसी न किसी विषय में शंका बनी हुई थी परन्तु वे कभी किसी को पूछते नहीं थे, क्योंकि उनकी विद्वत्ता की प्रसिद्धि उन्हें ऐसा करने से रोकती थी। इन्द्रभूति की प्रव्रज्या
महावीर की सर्वज्ञता के समाचार सर्वप्रथम इन्द्रभूति गौतम के कानों तक पहुँचे । उनको कभी विश्वास नहीं था कि संसार में उनसे बढ़कर भी कोई विद्वान् हो सकता है । वे महासेन उद्यान की तरफ से आनेवालों से बार-बार पूछते-"क्यों कैसा है वह सर्वज्ञ ?" उत्तर मिलता-"कुछ न पूछिये ज्ञान और वाणीमाधुर्य में उनका कोई समकक्ष नहीं ।" इस जनप्रवाद ने इन्द्रभूमि को एक प्रकार से उत्तेजित कर दिया । उन्होंने इस नूतन सर्वज्ञ से भिड़कर अपनी ताकत का परिचय देने का निश्चय किया और अपने छात्रसंघ के साथ महासेन उद्यान की ओर चल दिए । अनेक विचार-विमर्श के अन्त मे इन्द्रभूति भगवान् महावीर की धर्मसभा के द्वार तक पहुँचे और वहीं स्तबध से होकर खड़े रह गये ।
इन्द्रभूति ने अपने जीवनकाल में बहुत पंडित देखे थे, बहुतों से टक्कर ली थी, बहुतों को वादसभा में निरुतर करके नीचा दिखाया था और यहाँ भी वे इसी विचार से आये थे, पर जब उन्होंने महावीर के समवसरण के द्वार में पैर रक्खा तो महावीर के योगैश्वर्य्य और भामण्डल को देखकर वे चौंधिया गये; उनकी विजयकामना शांत हो गई । वे अपनी अविचारित प्रवृत्ति पर अफसोस करने लगे । फिर सोचा यदि ये मेरी शंकाओं को बिना पूछे ही निर्मूल कर दें तो इन्हें सर्वज्ञ मान सकता हूँ।
इन्द्रभूति इस उधेड़बुन में ही थे कि भगवान् महावीर उन्हें संबोधित करते हुए बोले—गौतम ! क्या तुम्हें पुरुष (आत्मा) के अस्तित्व के संबन्ध में शंका है ?
इन्द्रभूति–हाँ महाराज, मुझे इस विषय में शंका-सी रहती है क्योंकि "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य
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