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________________ आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम् (अर्थ) पक्षी भी पापी जीवों के बहुत प्रकार के उपायों के द्वारा बंध को प्राप्त हुए तथा बहुत से आयुधों के द्वारा छेदे गए वे (पक्षी) करुण आवाज करते हैं। दुमपत्तभवो कीडो, निहओ भमरीए निद्दयमणाए । अह साथि (घ) रोलिया एसा अहिणा सो वि मोरेणं ॥ ७१ ॥ (अर्थ) वृक्ष के पत्तो में उत्पन्न कीडा निर्दय ऐसे मनसे भौरे के द्वारा मारा जाता हैं, वह भौंरा इस गृहकोकिल के अधीन है और वह गृहकोकिला मोर के द्वारा मारी जाती है। सो वणमज्जारेणं, सो वि विरूपण सो वि चित्तेण । वग्घेण सो वि सीहेण सो वि अट्ठावएणं सो॥७२॥ ४९ (अर्थ) वह (मोर) वन बिल्ली के द्वारा, वह बिल्ली भौंडे के द्वारा, भौंडा चित्ते के द्वारा, वह चित्ता बाघ के द्वारा, वह बाघ सिंह के द्वारा, वह सिंह गेंडे के द्वारा मारा जाता है। सबलेहिं एवमबला, ' परुप्परं निद्दयं हणिज्जंता । ताणरहिया वराया, तिरिया अच्छंति दुहभरिया ॥७३॥ (अर्थ) इस प्रकार सबलों के द्वारा परस्पर को निर्दयता से मारे जाते हुए, जिनका रक्षण करने वाला कोई नहीं हैं ऐसे बेचारे तिर्यंच दुःख से युक्त रहते हैं। कम्मखओवसमेणं, कयावि कहमवि घ (घु) णक्खरनएणं । एए विदेसविरई, कंबलसबलाई व लहंति ॥७४॥ (अर्थ) ये भी(तिर्यंच) कभी तो किसी भी प्रकार से कर्म के क्षयोपशम से घुणाक्षरन्याय से कंबल, सबल आदि की तरह देशविरति प्राप्त करते हैं। एसु चिरं भमिऊणं, दसदिट्टंतेहिं चुल्लगाईहिं। कहमवि मणुयगईए, उदए मणुओ तुमं जाओ ॥७५॥ (अर्थ) इसमें बहुत काल तक भ्रमण करने के बाद क्षुल्लकादि दस दृष्टांतों के द्वारा किसी भी तरह मनुष्य गति ( नाम कर्म) के उदय होनेपर तूं मनुष्य हुआ। कइया विवणुनिवासी वक्कलवसणो विरूवरूवो य। जीववहरत्तचित्तो दुहिओ सवरो तुमं जाओ॥७६॥ (अर्थ) कदाचित वन में रहनेवाले पेडों के छाल से बने वस्त्र को पहननेवाले विरूपरूप और जीव के वध में जिसका चित्त लगा रहता है ऐसा दुःखी शबर तुम हुए। उद्ध(द्बु)सियरोमकूवो रत्तच्छो भीमदंसणो खुद्दो । जाओ य तुमं चोरो कयावि आरोविओ सूलिं॥७७॥ (अर्थ) जिस के रोम के बाल रोमांचित हुए है ऐसा, लाल आंखों वाला तुच्छ, भयंकर दिखनेवाला तू चोर हुआ और कभी तो शूल पर आरोपित 'हुआ।
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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