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________________ श्रुतदीप-१ छिन्न-कर-चरण-नासा-कन्नो खिन्नो कयावि दुहपुन्नो। अटुंग-लोह-कीलय-विद्धो विद्धो य कइयावि॥७८॥ (अर्थ) कभी तो जिसके हाथ, पैर, नाक, कान कटे है ऐसा दुःख से खिन्न, जिसके आठ अंग लोहे की खीलि से वेधित किये है ऐसा कभी तो वृद्ध हुआ। आपाय-नहुत्तारियचम्मो लित्तो कयावि चुन्नेणं। करवत्त-कुंत-सत्ती-खग्गेहिं कयावि भिन्नो सि॥७९॥ (अर्थ) जिस की चमडी सिर से लेकर पैर के नाखून तक उतार दी गई है और कभी तो चूर्ण के द्वारा लिप्त किया है ऐसा करवत, भाला, शक्ति(अंकुश), खड्ग के द्वारा कभी तू भेदित हुआ। आसी तुमं वराओ, रंको दीणो कयावि मायंगो। अंधो बहिरो गो, पंगू कुंटो य कईयावि॥८०॥ (अर्थ) तू कभी गरीब, याचक, दीन, मातंग और कभी अंधा, गुंगा, पंगु, मुक, कुब्ज(हाथरहित) हुआ। कासेहिं सासेहिं, जलोयरेहिं कोढेहिं सूलेहिं भगंदरेहि। रोगेहिं सोगेहिं, महादुहेहिं थात्थांतया जीव! तुमं विहत्थो॥८१॥ (अर्थ) खाँसी, श्वास, जलोदर, कुष्ठरोग, शूल, भगंदर इस प्रकार के रोगों से मिलनेवाले शोक से, महादुःखों से ग्रस्त हे जीव! तूं व्याकुल है। वंत-मल-पित्त-मेहण-उच्चाराईस अणंतसो जीवो। आसा(सी) असन्निमणुओ, अंतमुहुत्ताओ(उ) य तुम॥८२॥ (अर्थ) इस प्रकार उल्टी, मल, पित्त, मैथुन के मलोत्सर्ग में अनंत मनरहित मनुष्य जीव होते हैं। ऐसा तू अंतर्मुहूर्त (अडतालीस मिनट) आयुवाला जीव हुआ। मणुयाण परममाउं, पलियतियं तह तिकोसयं देह। जोणीलक्खा चउदस, कायठिई सत्त अट्ठ भवा॥८३॥ (अर्थ) मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्योपम तथा देह तीन कोस प्रमाण वाला होता है, चौदह लाख योनि तथा कायस्थिति सात-आठ भव तक होती है। अमुणियधम्मो काउं, पावं मणुयत्तणे तुम विविह। पत्तो अहोगईए, भारेण व पावनिवहस्स॥८४॥ (अर्थ) मनुष्य गति में विविध पापों को करके जिसने धर्म नहीं जाना है ऐसा तू अधोगति में गया जैसे पाप के समूह के भार से अधोगति में गया हो। जालामालकरालो, खाइरअग्गी जहा हवइ तत्तो। तत्तो अणंतभ(गु)णियं तत्तो(तं), उ नरयपुढवीओ(उं)॥८५॥
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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