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________________ श्रुतदीप-१ सयरि च कोडिलक्खा, सहसा छप्पन्न वासकोडिणं। एयं सव्वजिणेहिं, भणियं पुव्वस्स परिमाणं॥६३॥ (अर्थ) सत्तर लाख छप्पन हजार करोड वर्षों का पूर्व का परिमाण सर्वज्ञ जिनों के द्वारा कहा है। वाससहस्सा चुलसी-दुगहियसत्तरि-तिवन्न-बायाला। मुच्छिम-पलिं(णिं)दि-थलयर-खयरोरग-भुयगपरमाउं॥६४॥ (अर्थ) चौरासी हजार वर्ष सम्मूर्छिम पंचेंद्रिय स्थलचर जीवों की, बहत्तर हजार वर्ष से कुछ अधिक सम्मूर्च्छिम पंचेंद्रिय खेचर जीवों की, तिरपन हजार वर्ष सम्मूर्छिम पंचेंद्रिय उरपरिसर्प जीवों की, बयालीस हजार वर्ष सम्मूर्छिम पंचेंद्रिय भुजपरिसर्प जीवों की परम आयु होती हैं। सत्तट्ठभवा एसिं, कायठिई जोणिलक्खचउगं च। तिरियगई इमाए, जं पत्तं तं इहं सुणसु॥६५॥ (अर्थ) इनकी सात-आठ भव तक कायस्थिति और चार लाख योनियाँ होती है, इसमें जो तिर्यग् गति को जो प्राप्त होता है उसको यहाँ(अब) सुन। कोमरिएहि य धरिय,(या?) बहियाए जलाउ जलजीवा। खिविया इव जलणम्मी, मरंति दहिया सरणरहिया॥६६॥ (अर्थ) जल से बाहर निकाले हुए, मच्छीमार के द्वारा धारण किए हुए ऐसे दुःखित, शरणरहित, जल में रहनेवाले जीव अग्नि में डाले हए की तरह मरते हैं। लहणो गुरुमच्छेहि, अखंडदेहा तहा गिलिज्जति। एगे कल्लोलेहिं, उक्खित्ता बहि मरंति सयं॥६७॥ (अर्थ) उसी प्रकार बडी मछलियों के द्वारा अखंडदेहवाली छोटी मछलियाँ निगली जाती हैं, किसी एक लहर के द्वारा बाहर फेके जाने पर भी मरती हैं। ___ अहमेहिं निद्दएहिं, आहाराणत्थ अ(उ)भय धम्मट्ठा। मारिज्जंता थलयरजीवा कंदंति कलु(रु)णसरं॥६८॥ (अर्थ) आहार के लिए और धर्म के लिए निर्दयी ऐसे अधमों के द्वारा मारे जाते हुए ऐसे स्थलचर जीव करुण स्वर में आवाज करते हैं। अंकण-बंधण-ताडण-च्छेयण-भेयण-खुहा-पिवासाहिं। अक्कंता परतंता, गमंति थलयरजिया कालं॥६९॥ (अर्थ) चिह्नित करना, बांधना, मारना, छेदन करना, भेद करना, भूक, प्यास आदि से आक्रान्त करते हुए परतन्त्र ऐसे स्थलचर जीव काल को व्यतीत करते हैं। खयरा अवि पावेहिं, बहुयउवाएहिं पाविया बंध। कलणं लवंति बहुसो, छेइज्जता पहरणेहिं॥७०॥
SR No.007792
Book TitleShrutdeep Part 01
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShubhabhilasha Trust
Publication Year2016
Total Pages186
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size13 MB
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