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श्रुतदीप-१
(अर्थ) वहाँ पर भी असंख्य काल तक छेदनादिक दुःख को सहन करके घने पतले ऐसे, तृण आदि को आकाश में उडानेवाले वायुविशेष के बहनेवाले वायुजीवों में प्राप्त होता है।
कणगासणविज्जुक्कामुम्मुरिइंगालजालपमुहेसुं।
अगणिजिएसुं पत्तदुक्खं विज्जावणाईयं॥४९॥ (अर्थ) आकाश में उडनेवाले अग्निकण, वज्र की अग्नि, बिजली की अग्नि, आकाश से जो अग्नि की वर्षा होती है, कंडे की गरम राख में रहनेवाले अग्निकण, ज्वालारहित काष्ठ की अग्नि, ज्वाला प्रमुख अग्निजीवों में बुझाना इत्यादि दुःख प्राप्त होते
ओस-हिम-करग-हरतणु-महिया-भोमंतलि(रि)क्खमाईसु।
आउजिएसुं पत्तं, तावणपाणाइयदुक्खं॥५०॥ ___ (अर्थ) ओस, हिम, करक(बरफ), हरित वनस्पति पर रहनेवाली पानी के बिंदु, छोटे छोटे जल के कण जो आकाश से बादलों से गिरते हैं, जमीन से निकलता हुआ पानी(कुआँ), अन्तरीक्ष आदि अप् जीव में पानी उबालना आदि दुःख प्राप्त हुआ।
मणि-रयण-ल्हण-अब्भय बन्निय-हरियाल-मणिसिलाई।
वट्टणघोलणपमुहं, पुढविजिएसुं च बहुदुक्खं॥५१॥ (अर्थ) मणि, रत्न, लवण, अभ्रक, चंदन, हरिताल(तृण विशेष), मनःशिल धातु आदि पृथ्वी जीव में परावर्तन, घोलन(घर्षण)(ऐसे) प्रमुख बहुत दुःख है।
वाससहस्सा १ तिन्नि य, दिवसतिगं २ तह य सत्त ३ बावीसं ४।
वाससहस्सा आउं, चउसु वि वायाइजीवेसु॥५२॥ (अर्थ) तीन हजार वर्ष, तीन दिन, सात तथा बाईस इत्यादि चार भी वात आदि जीवों में हजार वर्ष तक आयुष्य होता है।
अंगुलअसंखभागो, देहं चउसु पि सत्तसत्तेव।
जोणीलक्खा नेया, कालमसंखं च कायट्टिई॥५३॥ (अर्थ) चारों गति में देह परिमाण अंगुल का असंख्य भाग, सात सात लक्ष योनि और असंख्य काल तक कायस्थिति जाननी चाहिए।
सीयं तावाइदुक्खं, तत्थ य वि समुत्थिय अगणंतो।
अह पत्तो जीव! तुमं, तसनामुदयण तसभावं॥५४॥ (अर्थ) हे जीव! तु वहाँ शीत, ताप आदि से उत्पन्न हुए दुःख को न गिनते हुए त्रस नामक कर्म के उदय से त्रस भाव को प्राप्त हुआ।
बें(ब)(इं)दिया य जीवा, किमि-संख-जलोय-चंदणाईया। __ तेइंदिया य मंकुण-जूया-उद्देहिया पमुहा॥५५॥
१. १.वायु, २.अग्नि, ३.अप, ४.पृथ्वी